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________________ १० प्राकृत साहित्य का इतिहास बोलियों के आधार पर प्राकृत की रचना हुई थी, वे बोलियां नियमों में बाँधी नहीं जा सकीं | इनका विकास बराबर जारी रहा और ये अपभ्रंश के नाम से कही जाने लगीं। भाषाशास्त्रं की शब्दावलि में कहेंगे अपभ्रंश अर्थात् विकास को प्राप्त भाषा | पहले, जैसे प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के साहित्यिक भाषा हो जाने से मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा प्राकृत को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला था, उसी प्रकार जब मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषायें साहित्यिक रूप धारण कर जनसामान्य की भाषाओं से दूर हो गई तो आधुनिक भारतीय आर्यभाषा अपभ्रंश को महत्त्व दिया गया; जनसाधारण की बोली की परंपरा निरंतर जारी रही। आगे चलकर जब अपभ्रंश भाषा भी लोकभाषा न रह कर साहित्यरूढ़ बनने लगी तो देशी भाषाओं-हिन्दी, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली, सिंधी आदि-का उदय हुआ । वास्तव में प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषा, इन तीनों का आरम्भकाल में एक ही अर्थ था-जैसे-जैसे इनका साहित्यिक रूप बना, वैसे-वैसे उनका रूप भी बदलता गया ।' ' प्राकृत भाषायें इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषाओं के अनेक रूप थे। ये श्वेताम्बर जैन आगमों की अर्धमागधी प्राकृत, दिगम्बर जैनों के प्राचीन शास्त्रों की शौरसेनी प्राकृत, जैनों की धार्मिक और लौकिक कथाओं की प्राकृत, संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त विविधरूपवाली प्राकृत, मुक्तक काव्यों की महाराष्ट्री प्राकृत, शिलालेखों की प्राकृत आदि के रूप में बिखरी हुई पड़ी थीं। इन सब भाषाओं को सामान्यतया प्राकृतं के नाम से कहा जाता था, यद्यपि प्राकृत के व्याकरणकारों ने इनके - १. काव्यालंकार (पृष्ठ १५) के टीकाकार नमिसाधु ने 'प्राकृतमेवापभ्रंशः' लिखकर इसी कथन का समर्थन किया है। .
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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