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________________ ३०० प्राकृत साहित्य का इतिहास पक्के फलम्मि पडिदे जह ण फलं वझदे पुणो विंटे। जीवस्स कम्मभावे पडिदे ण पुणोदयमुवेइ ।। -जैसे पके फल के गिर जाने पर वह फिर अपने डंठल से युक्त नहीं होता, वैसे ही कर्मभाव के नष्ट हो जाने पर फिर से उसका उदय नहीं होता। नियमसार नियमसार' में १८६ गाथायें हैं, जिन पर पद्मप्रभमलधारिदेव ने ईसवी सन १००० के लगभग टीका लिखी है। पद्मप्रभ ने प्राभृतत्रय के टीकाकार अमृतचन्द्रसूरि की टीका के श्लोक नियमसार की टीका में उद्धृत किये हैं। इसमें सम्यक्त्व, आप्त, आगम, सात तत्व, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र के अन्तर्गत १२ व्रत, १२ प्रतिमा, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति, निश्चय आवश्यक, शुद्ध उपयोग आदि का विवेचन है। स्यणसार रयणसार में १६७ गाथायें हैं। यहाँ सम्यक्त्व को रत्नसार कहा गया है। इस ग्रंथ के पढ़ने और श्रवण से मोक्ष की प्राप्ति बताई है । एक उक्ति देखियेविणओ भत्तिविहीणो महिलाणं रोयणं विणा णेहं । चागो वेरग्गविणा एदे दोबारिया भणिया । -भक्ति के बिना विनय, स्नेह के बिना महिलाओं का रोदन और वैराग्य के बिना त्याग ये तीनों विडंबनायें हैं। एक उपमा देखियेमक्खि सिलिम्मे पडिओ मुवइ जहा तह परिग्गहे पडिउं । लोही मूढो खवणो कायकिलेसेसु अण्णाणी ॥ १. जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई से सन् १९९६ में प्रकाशित । इस पर पनप्रभमलधारिदेव ने संस्कृत में टीका लिखी है जिसका हिन्दी अनुवाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने किया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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