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________________ समयसार २९९ मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा | पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ . -जीव मरे या जीये, अयत्नपूर्वक आचरण करनेवाले को हिंसा का दोष निश्चित लगता है। प्रयत्नशील समितियुक्त जीव को केवल बहिरंग हिंसा कर देने मात्र से कर्म का बंध नहीं होता। समयसार' में ४३७ गाथायें हैं। अमृतचन्द्र और जयसेन की इस पर टीकायें हैं। इसमें १० अधिकार हैं। पहले अधिकार में स्वसमय, परसमय, शुद्धनय, आत्मभावना और सम्यक्त्व का प्ररूपण है। दूसरे में जीव-अजीव, तीसरे में कर्म-कर्ता, चौथे में पुण्य-पाप, पाँचवें में आस्रव, छठे में संवर, सातवें में निर्जरा, आठवें में बंध, नौवें में मोक्ष और दसवें में शुद्ध पूर्ण ज्ञान का प्रतिपादन है। समयसार का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कम्मं बद्धमबद्धं जीवं एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खादिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥ -जीव कर्म से बद्ध है या नहीं, यह नयों की अपेक्षा से ही जानना चाहिये। जो नयों की अपेक्षा से रहित है उसे समय का सार समझना चाहिये। शुद्ध नय की अपेक्षा जीव को कर्मों से अस्पृष्ट माना गया हैजीवे कम्मं बद्धं पुठं चेदि ववहारणयभणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुठं हवइ कम्मं ॥ -व्यवहार नय की अपेक्षा जीव कमों से स्पृष्ट है, शुद्ध नय की अपेक्षा तो उसे अबद्ध और अस्पृष्ट समझना चाहिये। कर्मभाव के नष्ट हो जाने पर कर्म का फिर से उदय नहीं होता• १. रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला में अमृतचन्द्र और जयसेन की संस्कृत टीकाओं के साथ सन् १९१९ में बम्बई से प्रकाशित ; सेक्रेड बुक्स आव द जैन्स, जिल्द ८ में जे. एल. जैनी के अंग्रेजी अनुवादसहित सन् १९३० में लखनऊ से प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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