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________________ २३२ प्राकृत साहित्य का इतिहास पता चला तो उन्होंने अपनी आँखों में अंजन आँज कर राजा चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करने का निश्चय किया। दोनों प्रतिदिन अंजन लगा कर अदृश्य हो जाते और चन्द्रगुप्त के साथ भोजन करते । लेकिन इससे पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण चन्द्रगुप्त कृश होने लगे | चाणक्य ने इसका कारण जानने का प्रयत्न किया | उसने भोजनमण्डप में ईटों का चूरा बिखेर दिया । . कुछ समय बाद उसे मनुष्य के पगचिह्न दिखाई दिये। वह समझ गया कि दो आदमी आँख में अंजन लगा कर आते हैं। एक दिन उसने दरवाजा बन्द करके धुंआ कर दिया । धूआ लगने से क्षुल्लकों की आँखों से पानी बहने लगा जिससे अंजन धुल गया। देखा तो सामने दो क्षुल्लक खड़े थे। चन्द्रगुप्त को बड़ी अत्मग्लानि हुई। खैर, चाणक्य ने बात संभाल ली । बाद में उसने वसति में जाकर आचार्य से निवेदन किया कि आपके शिष्य ऐसा काम करते हैं। दोनों शिष्यों को प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ा। ओघनियुक्तिभाष्य ओघनियुक्ति के भाष्य में ३२२ गाथायें हैं। धर्मरुचि आदि के कथानकों और बदरी आदि के दृष्टांतों द्वारा तत्वज्ञान को , समझाया गया है। कुछ कथानक अस्पष्ट भी हैं जिसका उल्लेख वृत्तिकार द्रोणाचार्य ने किया है (देखिये ८ भाष्य की टीका)। बहुत से लोग प्रातःकाल साधुओं का दर्शन अपशकुन मानते थे। उनके लिंग ( अहिहाण) को देखकर वे मजाक करते थे कि लो सुबह ही सुबह शीशे (उद्दाग ) में मुँह देख लो ! लोग कहते थे कि इन साधुओं ने केवल उदरपूर्ति के लिए प्रव्रज्या ग्रहण की है | कभी कोई विधवा स्त्री उन्हें एकांत में पा कर द्वार आदि बन्द कर परेशान करती थी। ज्योतिष आदि का प्रयोग भी साधु किया करते थे। लेपपिण्ड में बताया है कि जब वे अपने पात्र में लेप लगाते तो कभी उसे कुत्ता आकर चाट जाता था (जक्खुल्लिहण, यहाँ यक्ष का अर्थ टीकाकार ने
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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