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________________ दशवैकालिकभाष्य २३१ और उत्तरगुणों का प्रतिपादन है । अनेक प्रमाणों से जीव की सिद्धि की गई है । लौकिक, वैदिक तथा सामयिक (बौद्ध) लोग जीव को किस रूप में स्वीकार करते हैं लोगे अच्छेजभेजो वेए सपुरीसदगसियालो समएज्जहमासि गओ तिविहो दिव्वाइसंसारो ॥ - लौकिक लोग आत्मा को अच्छे और अभेद्य मानते हैं । वेद में कहा है - जो विष्ठा सहित जलाया जाता है, वह शृगाल की योनि में जन्म लेता है, जो विष्ठा सहित जलाया जाता है। उसकी संतति अक्षत होती है । ( शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते, अथापुरीषो दह्यते आक्षोधुका अस्य प्रजाः प्रादुर्भवति ) । तथा बुद्ध का वचन है कि मैं पहले जन्म में हाथी था -- ( अहं मासं भिक्षवो हस्ती, षड्दन्तः शंखसंनिभः । शुकः पंजरवासी च शकुन्तो जीवजीवकः ॥ ) इस प्रकार, देव, मनुष्य, और तिथंच के भेद से संसार को तीन प्रकार का कहा है । पिंडनिर्युक्तिभाष्य fisनियुक्ति पर ४६ गाथाओं का भाष्य है । यहाँ पाटलिपुत्र के राजा चन्द्रगुप्त और उसके मंत्री चाणक्य का उल्लेख है । एक बार की बात है कि जब पाटलिपुत्र में दुर्भिक्ष पड़ा तो सुस्थित नाम के सूरि ने सोचा कि अपने समृद्ध नामक शिष्य को सूरि पद पर स्थापित कर किसी निरापद स्थान में भेज देना ठीक होगा । उन्होंने उसे एकान्त में योनिप्राभृत का उपदेश दिया जिसे दो क्षुल्लकों ने किसी तरह छिपकर सुन लिया । इसमें आँखों में अंजन आँज कर अदृश्य होने की विधि बताई गई थी । समृद्ध सूरिपद पर स्थापित हो गये, लेकिन जो भिक्षा मिलती वह पर्याप्त न होती । नतीजा यह हुआ कि समृद्ध दिन पर दिन दुर्बल होने लगे । क्षुल्लकों को जब इस बात का
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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