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________________ ૨૮૨ प्राकृत साहित्य का इतिहास ५ ओहनिज्जुत्ति ( ओपनियुक्ति) ओघ अर्थात् सामान्य या साधारण | विस्तार में गये बिना इस नियुक्ति में सामान्य कथन किया गया है, इसलिये इसे ओघनियुक्ति कहा जाता है'; यह सामान्य सामाचारी को लेकर लिखी गई है। इसके कर्ता भद्रबाहु हैं। इसे आवश्यकनियुक्ति का अंश माना जाता है। पिंडनियुक्ति की भांति इसमें भी साधुओं के आचार-विचार का प्रतिपादन है और अनेक उदाहरणों द्वारा विषय को स्पष्ट किया गया है । ओघनियुक्ति को भी छेदसूत्रों में गिना गया है। इसमें ८११ गाथायें हैं, नियुक्ति और भाष्य की गाथायें मिश्रित हो गई हैं। द्रोणाचार्य ने ओघनियुक्ति पर चूर्णी की भाँति प्राकृत-प्रधान टीका लिखी है । मलयगिरि ने वृत्ति की रचना की है। अवचूरि भी इस पर लिखी गई है। ओघनियुक्ति में प्रतिलेखनद्वार, पिंडद्वार, उपधिनिरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवनाद्वार, आलोचनाद्वार और विशुद्धिद्वार का प्ररूपण है। संयम पालने की अपेक्षा आत्मरक्षा करना आवश्यक है, इस विषय का ऊहापोह करते हुए कहा है सव्वत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याविरई ॥ -सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिये, लेकिन संयम पालन की अपेक्षा अपनी रक्षा अधिक आवश्यक है। क्योंकि जीवित रहने पर, संयम से भ्रष्ट होने पर भी, तप आदि द्वारा विशुद्धि १. द्रोणाचार्य ने इस पर वृत्ति लिखी है, जो आगमोदयसमिति, बंबई से १९१९ में प्रकाशित हुई है । भाष्य भी नियुक्ति के साथ ही छपा है । मुनि मानविजय जी ने द्रोणाचार्य की वृत्ति के साथ इसे सूरत से सन् १९५७ में प्रकाशित किया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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