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________________ उत्तरज्झयण १६५ आदि वर्णित हैं । भद्रबाहु की नियुक्ति (४) के अनुसार इस ग्रन्थ के ३६ अध्ययनों में से कुछ अध्ययन जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्ररूपित हैं और कुछ संवादरूप में कहे गये हैं। वादिवेताल शान्तिसूरि के अनुसार, इस सूत्र का दूसरा अध्ययन दृष्टिवाद से लिया गया है, दुमपुष्पिका नामक दसवां अध्ययन स्वयं महावीर ने कहा है, कापिलीय नामक आठवां अध्ययन प्रत्येकबुद्ध कपिल ने प्ररूपित किया है और केशी-गौतमीय नामक तेईसवां अध्ययन संवादरूप में प्रस्तुत किया गया है। पहले अध्याय में विनय का वर्णन है मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दठुमाइन्ने, पावगं परिवज्जए॥ जैसे मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-बार गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करनी चाहिये । जैसे अच्छी नस्ल का घोड़ा चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी प्रकार गुरु के आशय को समझ कर मुमुक्षु को पापकर्म त्याग देना चाहिये । __दूसरे अध्ययन में साधु के लिये परीषह-जय को मुख्य बताया है । तप के कारण साधु की बाहु-जंघा आदि कृश हो जायें और उसके शरीर की नस-नस दिखाई देने लगे, फिर भी उसे संयम में दीनवृत्ति नहीं करनी चाहिये | उसे यह नहीं सोचना चाहिये कि मेरे वस्त्र जीर्ण हो गये हैं और मैं कुछ ही १. यहाँ २२ परीषहों का उल्लेख है । बौद्धों के सुत्तनिपात (३.१८) में भी शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, वात, आतप, दंश ( डांस) और सरीसृप का सामना करने का उल्लेख है। आजकल भी उत्तर विहार में वैशाली और मिथिला के आसपास का प्रदेश डाँस और मच्छरों से आक्रान्त रहता है, इससे जान पड़ता है कि खास कर इसी प्रदेश में इन नियमों की स्थापना की गई थी।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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