SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६१ पंचकप्प पंचकप्प (पंचकल्प) पंचकल्पसूत्र और पंचकल्पमहाभाष्य दोनों एक हैं। जिस प्रकार पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का, और ओघनियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का ही पृथक् किया हुआ एक अंश है, वैसे ही पंचकल्पभाष्य बृहत्कल्पभाष्य का अंश है। मलयगिरि और क्षेमकीर्तिसूरि ने इसका उल्लेख किया है। इस भाष्य के कर्ता संघदासगणि क्षमाश्रमण हैं।' इस पर चूर्णी भी है जो अभीतक प्रकाशित नहीं हुई है। जीयकप्पसुत्त ( जीतकल्पसूत्र ) कहीं जीतकल्प की गणना छेदसूत्रों में की जाती है । इसमें जैन श्रमणों के आचार (जीत ) का विवेचन करते हुए उनके लिये दस प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान हैं जो १०३ गाथाओं में वर्णित है। जीतकल्प के कर्ता विशेषावश्यकभाष्य के रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं जिनका समय ६४५ विक्रम संवत् माना जाता है। जिनभद्रगणि ने जीतकल्पसूत्र के ऊपर भाष्य भी लिखा है जो बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पभाव्य, पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों की गाथाओं का संग्रहमात्र है । सिद्धसेन आचार्य ने इस पर चूर्णी की रचना की है जिस पर श्रीचन्द्रसूरि ने वि० सं० १२२७ में विषमपदव्याख्या टीका लिखी है। तिलकाचार्य की वृत्ति भी इस पर मौजूद है। इस सूत्र में प्रायश्चित्त का माहात्म्य प्रतिपादन कर उसके ___१. देखिये मुनि पुण्यविजयजी की बृहत्कल्पसूत्र छठे भाग की प्रस्तावना, पृ० ५६ । २. मुनि पुण्यविजय द्वारा सम्पादित वि० सं० १९९४ में अहमदाबाद से प्रकाशित ; चूर्णि और टीका सहित मुनि जिनविजय जी द्वारा सम्पादित, वि० सं० १९८३ में अहमदाबाद से प्रकाशित। ३. आयारजीदकप्प का वट्टकेर के मूलाचार (५.१९०) और शिवार्य की भगवतीआराधना (गाथा १३० ) में उल्लेख है। ११ प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy