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________________ १६० प्राकृत साहित्य का इतिहास निम्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों में झगड़ा (अधिकरण) आदि होने पर भिक्षाचर्या का निषेध है। गंगा, यमुना, सरयू , कोसी, और मही नदियों में से कोई भी नदी एक मास के भीतर एक बार से अधिक पार करने का निषेध है । कुणाला में एरावती नदी को पार करते समय एक पाँव जल में रख कर दूसरे पाँव को ऊँचा उठाकर पार करने का निषेध है। ऋतुबद्धकाल और वर्षा ऋतु में रहने लायक उपाश्रयों का वर्णन है । पाँचवें उद्देशक में सूर्योदय के पूर्व और सूर्योदय के पश्चात् भोजन-पान के सम्बन्ध में नियम बताये हैं। निर्ग्रन्थिनी को पिंडपात आदि के लिये गृहपति के कुल में अकेले जाने तथा रात्रि अथवा विकाल में उसे पशु-पक्षी आदि को स्पर्श करने का निषेध है। निम्रन्थिनी को अचेल और विना पात्र के रहने का निषेध है। सूर्याभिमुख होकर एक पग आदि से खड़ी रह कर तपश्चर्या आदि करने का निषेध है । रात्रि अथवा विकाल के समय सर्प से दष्ट किये जाने के सिवाय सामान्य दशा में निर्ग्रन्थ और निम्रन्थिनियों को एक दूसरे का मूत्रपान करने का निषेध है।' उन्हें एक दूसरे के शरीर पर आलेपन द्रव्य की मालिश आदि करने का निषेध है। ___ छठे उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को छह प्रकार के दुर्वचन बोलने का निषेध किया गया है। साधु के पैर में यदि कांटा आदि लग गया है तो और साधु स्वयं निकालने में असमर्थ हों तो नियम के अपवाद रूप में निग्रन्थिनी उसे निकाल सकती है। निर्ग्रन्थिनी यदि कीचड़ आदि में फंस गई हो तो निर्ग्रन्थ उसे सहारा दे सकता है। क्षिप्तचित्त अथवा यक्षाविष्ट निर्ग्रन्थिनी को निम्रन्थ द्वारा पकड़ कर रखने का विधान है। छह प्रकार के कल्पों का उल्लेख किया गया है। १. विनयपिटक के भैषज्यस्कन्धक में यह विधान पाया जाता है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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