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________________ कप्प १५७ नगर के गुणशिल चैत्य में समवसृत होने पर राजा श्रेणिक महारानी चेलना के साथ दर्शनार्थ उपस्थित होते हैं। कप्प (कल्प अथवा बृहत्कल्प) कल्प अथवा बृहत्कल्प को कल्पाध्ययन भी कहते हैं', जो पर्युषणकल्पसूत्र से भिन्न है | जैन श्रमणों के प्राचीनतम आचारशास्त्र का यह महाशास्त्र है। निशीथ और व्यवहार की भाँति इसकी भाषा काफी प्राचीन है, यद्यपि टीकाकारों ने अन्य आगमों की भाँति यहाँ भी बहुत सा हेरफेर कर डाला है। इससे साधु-साध्वियों के संयम के साधक (कल्प-योग्य ) अथवा बाधक (अकल्प-अयोग्य) स्थान, वस्त्र, पात्र आदि का विस्तृत विवेचन है, इसलिये इसे कल्प कहते हैं। इसमें छह उद्देशक हैं। मलयगिरि के अनुसार प्रत्याख्यान नामके नौंवें पूर्व के आचार नामक तीसरी वस्तु के बीसवें प्राभृत में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ; कालक्रम से पूर्व का पठन-पाठन बन्द हो जाने से प्रायश्चित्तों का उच्छेद हो गया जिसके परिणाम स्वरूप भद्रबाहुस्वामी ने कल्प और व्यवहार की रचना की और इन दोनों छेदसूत्रों पर सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति लिखी। कल्प के ऊपर संघदासगणि क्षमाश्रमण ने लघुभाष्य की रचना की है। मलयगिरि के कथनानुसार भद्रबाहु की नियुक्ति और संघदासगणि की भाष्य की गाथायें परस्पर मिल गई हैं, और इनका पृथक् होना असंभव है। भाष्य के ऊपर हेमचन्द्र आचार्य के समकालीन मलयगिरि ने अपूर्ण विवरण लिखा है जिसे लगभग सवा दो सौ वर्ष बाद संवत् १३३२ में क्षेमकीर्तिसूरि ने पूर्ण किया है । कल्प के ऊपर बृहद्भाष्य भी है जो केवल तीसरे उद्देश तक ही मिलता है । इस पर विशेषचूर्णी भी लिखी गई है। १. संघदासगणि के भाष्य तथा मलयगिरि और क्षेमकीर्ति की टीकाओं के साथ मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सुसम्पादित होकर आत्मानंद जैनसभा भावनगर से १९३३-१९४२ में प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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