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________________ . . निसीह १३७ है । ( यहां भाष्यकार ने गग्गरग, दंडि, जालग, दुखील, एक, गोमुत्तिग ; तथा झसंकट और विसरिगा नामकी सीने की विधियाँ बतायी हैं)। दूसरे उद्देशक में ५६ सूत्र हैं जिन पर ८१६-१४३७ गाथाओं का भाष्य है। पहले सूत्र में काष्ठ के दंडवाले रजोहरण (पायपुंछण) रखने का निषेध किया है। परुष वचन बोलने का निषेध है (चूर्णिकार ने टक (टंक), मालव और सिन्धुदेश के वासियों को स्वभाव से परुष-भाषी कहा है)। भिक्षुओं को चर्म रखना निषिद्ध है (इस प्रसंग पर भाष्यकार ने एगपुड, सकलकसिण, दुपड, कोसग, खल्लग, वग्गुरी, खपुसा, अद्धजंघा और जंघा नामके जूतों का उल्लेख किया है। ( यहाँ अपवाद १. गग्गरसिध्वणा जहा संजतीणं । डंडिसिम्वणी जहा गारस्थाणं । जालासिव्वणी जहा वरक्खाइसु एगसरा, जहा संजतीणं पयालणीकसासिचणी गिन्मंगे वा दिजति । दुक्खीला संधिजते उभओ खीला देति । एगखीला एगतो देति । गोमुत्तासंधिजते इओ इओ एक्कसिं वत्थं विंधइ । एसा अविधिविधिझसंकटासा संधणे भवति, एक्कतो वा उकुइते सम्भवति। विसरिया सरडो भण्णति (१. ७८२ की चूर्णी, पृष्ठ ६०)। ... २. एक तले के जूते को एगपुड और दो तलों के जूते को दुपड कहा जाता था। सकलकसिण ( सकलकृस्त्र) जूते कई प्रकार के होते थे। पाँव की उंगलियों के नत्रों की रक्षा के लिये कोसग का उपयोग होता था। सर्दी के दिनों में पाँव की बिवाई से रक्षा के लिये खल्लक काम में लाते थे। महावग्ग (५, २, ३) में इसे खल्लकबन्ध कहा है। जो उँगलियों को ढक कर ऊपर से पैरों को ढक लेता था, उसे वग्गुरी कहते थे। खपुसा घुटनों तक पहना जाता था। इससे सर्दी, साँप, बर्फ और कांटों से रक्षा हो सकती थी। अजंघा आधी जंघा को और जंघा समस्त जंघा को ढकने वाले जूते कहलाते थे। देखिये बृहत्कल्पभाष्य ४, १०५९ इत्यादि। विनयपिटक के चर्मस्कन्धक में भी जूतों का उल्लेख मिलता है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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