SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ प्राकृत साहित्य का इतिहास अध्ययन करने लगा। एक दिन पढ़ते-पढ़ते आर्यरक्षित ने आर्यवन से प्रश्न किया-"महाराज ! दसवें पूर्व का अभी कितना भाग बाकी है ?” आर्यवज्र ने उत्तर दिया- "अभी केवल एक बिंदुमात्र पूर्ण हुआ है, समुद्र जितना अभी बाकी है।" यह सुनकर आर्यरक्षित को बड़ी चिन्ता हुई। वह सोचने लगे कि ऐसी हालत में क्या मैं इसका पार पा सकता हूँ ? तत्पश्चात् आर्यरक्षित वहाँ से यह कहकर चले आये कि मेरा लघु भ्राता आ गया है, अब कृपा करके उसे पढ़ाइये । आर्यवज्र ने सोचा कि मेरी थोड़ी ही आयु अवशेष है और फिर यह शिष्य लौट कर आयेगा नहीं, इसलिये शेष पूर्वो का मेरे समय से ही व्युच्छेद समझनाचाहिये। आर्यरक्षित दशपुर चले गये और फिर लौटकर नहीं आये ।' नन्दीसूत्र में दृष्टिवाद के पाँच विभाग गिनाये हैं-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत (१४ पूर्व'), अनुयोग और चूलिका | परिकम के द्वारा १. भावश्यकसूत्र, हरिभद्रगटीका, पृष्ठ ३००-३०३ । २. पूर्व दृष्टिवाद का ही एक भाग है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी के अनुसार भद्रबाहु ने दृष्टिवाद का उद्धार असमाधिस्थान नामक प्राभृत के आधार से किया है । आवश्यकभाष्य के अनुसार आचार्य महागिरि के शिष्य कौंडिन्य और उनके शिष्य, दूसरे निह्नव के प्रतिष्ठाता, अश्वमित्र विद्यानुवाद नामक पूर्व के अन्तर्गत नैपुणिक वस्तु में पारङ्गत थे। पूर्वी में से अनेक सूत्र तथा अध्ययन आदि उद्धृत किये जाने के उल्लेख आगों की टीकाओं में पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, आत्मप्रवादपूर्व में से दशवैकालिक सूत्र का धम्मपण्णत्ति (षड्जीवनिकाय ), कर्मप्रवाद में से पिंडेसणा, सत्यप्रवाद में से बकसुद्धी नामक अध्ययन तथा शेष अध्ययन प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धृत हैं। ओधनियुक्ति, बृहस्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ और व्यवहार को भी प्रत्याख्यानप्रवाद में से उद्धृत बताया है। उत्तराध्ययन के टीकाकार वादिवेताल शांतिसूरि के अनुसार उत्तराध्ययन का परिषह नामक अध्ययन दृष्टिवाद से लिया गया है । महाकल्पश्रुत भी इसी से उद्धृत माना जाता है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy