SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास प्रवृत्तियों में विघ्न उपस्थित किया करती । लेकिन महाशतक अन्ततक अपने व्रत से न डिगा। नौवें अध्याय में नंदिनीपिता और दसवें में सालिहीपिता की कथा है। अन्तगडदसाओ ( अन्तकृद्दशा) संसार का अन्त करनेवाले केवलियों का कथन होने से इस अंग को अन्तकृद्दशा कहा गया है। जैसे उपासकदशा में उपासकों की कथायें हैं, वैसे ही इसमें अहंतों की कथायें हैं । इस अंग की कथायें भी प्रायः एक जैसी शैली में लिखी गई हैं। कथा के कुछ अंश का वर्णन कर शेष को 'वण्णओ जाव' (वर्णकः यावत्) आदि शब्दों द्वारा व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा ज्ञातृधर्मकथा आदि की सहायता से पूर्ण करने के लिये कहा गया है। कृष्णवासुदेव की कथा यहाँ आती है । अर्जुनक माली की कथा रोचक है। उपासकदशा की भाँति इस अंग में भी दस अध्ययन होने चाहिये, लेकिन हैं इसमें आठ वर्ग ( अध्ययनों के समूह)। स्थानांगसूत्र में इस अंग के विषय का जो वर्णन दिया है उससे प्रस्तुत वर्णन बिलकुल भिन्न है। अभयदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी है। पहले वर्ग में दस अध्ययन हैं, जिनमें गोयम, समुद्द, सागर आदि का वर्णन है। पहले अध्ययन में सिद्धि प्राप्त करनेवाले गोयम की कथा है। द्वारका नगरी के उत्तर-पूर्व में रैवतक नाम का पर्वत था, उसमें सुरप्रिय नामक एक यक्षायतन था । द्वारका १. एम. डी. बारनेट ने इसे और अणुत्तरोववाइय को १९०७ में अंग्रेजी अनुवाद के साथ लंदन से प्रकाशित किया है; एम. सी. मोदी का भनुवाद अहमदाबाद से १९३२ में प्रकाशित हुआ है। अखिलभारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन शास्त्रोद्धारक समिति राजकोट से १९५८ में हिन्दी-गुजराती अनुवाद सहित इसका एक और संस्करण निकला है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy