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________________ २६7 सूत्रकृतांग सूत्र उस समय वह सच्ची बात स्वीकार करने के बदले, अपनी नि:पिता की डींगे हांकता है और ऐसा नीच कर्भ में कसं? ऐसा कहकर, ग्लानि प्रकट करते हैं। किसी समय खुले-श्राम पकडे जाने पर तो वह कहता है कि, "मैं तो कोई पाप नहीं करता था। वह तो मात्र मेरी गोद में लेट गई थी!" इस प्रकार यह मूर्स मनुष्य अपने मान की रक्षा के लिये मूठ बोलकर दूना पाप करता है । इसलिये, पहिले से ही स्त्रियों के निकट प्रसंग में न आवे यही बुद्धिमान का प्रथम लक्षण है। [१७-१६, २८-२१] एक बार ऐसे प्रसंग में आकर किसी स्त्री के प्रेम में फंसने के बाद उन भोगेच्छु भिक्षुकों की क्या दशा होती है, उसके उदाहरण के लिये मैं मिनु के गृहसंसार का वर्णन करता हूं. उसे तुम सुनो। यह कोई कल्पित नहीं है पर स्त्रियों में फंसे हुए अनेक भिक्षुओं ने वास्तव में किया हुआ है। जब तक भिक्षु अपने वश में नहीं हो जाता, तब तक तो स्त्रीउसके प्रति स्नेह प्रकट करती हुई कहती है कि, “हे भिक्षु, मैं तुम्हारी प्रियतमा होने पर भी यदि आप मेरे संसारी होने के कारण मुझ से सहवास न कर सकते हो तो मैं अपने बाल उखाड कर साध्वी होने के लिये तैयार है। पर मुझे छोडकर कहीं चले न जाना !" पर बाद में नव भिक्षु विलकुल वश में हो जाता है, तो वह स्त्री उसको तिरस्कार करने लगती है और अपने अच्छे-बुरे सब काम उससे कराने लगती हैं ! उसे भिक्षा का अन्न नहीं आता तो वह शाक और उसको बनाने के लिये तपेली और लकडी-कंडे की
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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