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________________ कर्मनाश [19 पराकन और पुरुषार्थ द्वारा निवार्य प्राप्ति का मार्ग प्राप्त करना चाहिये । [ १० - १२ ] परन्तु, कर्न - नाश का मार्ग अति सूक्ष्म तथा दुर्गम है । अनेक मनुष्य उस ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा से सन्यासी होकर, भिताचर्यां स्वीकार करते हैं, नग्नावस्था में रहते हैं, और मास के अन्त में भोजन करने की कठोर तपश्चर्या करते हैं ! परन्तु अपनी आन्तरिक कामनाओं को निर्मूल न कर सकने के कारण, वे कर्मचक्र में से मुक्त होने के बदले में, उसी में कटते रहते हैं। मनुष्य - : पहिजे ज्ञानी मनुष्यों की शरण लेकर, उनके पास से योग्य मार्ग साधारण मार्ग पर हैं ? तो फिर, इस खाना पडे, इस के जानकर, उनके लिये प्रयत्नवान् तथा योगयुक्त होकर आगे बढे । चलने के लिये ही कितने दाव पेंच जानने पडते कर्मनाश के दुर्गम मार्ग पर जाते हुए गोते. न लिये प्रथम ही इस मार्ग के दर्शक मनुष्य की शरण लेनी चाहिये । जीवन के साधारण व्यवहार में अनेक कठिनाइयों को सहन करना पडता है, ऐसा ही ग्राहमा का हित साधने का मार्ग है इस मार्ग में अनेक कठिनाइयों का वीरतापूर्वक सामना करना पडता है । इन से घबरा जाने से तो क्या हो सकता हैं ? उसको तो, कंडों से छची हुई दीवाल जैसे उनके निकाल लिये जाने पर पतली हो जाती है, वैसे ही व्रत संयमादि से शरीर मन के स्तरों के निकाल दिये जाने पर उन दोनों को कृश होते हुए देखना है । यह सब सरल नहीं हैं । जो सच्चा वैराग्यवान् तथा तीव्र मुमुक्षु है, वही तो शास्त्र में बताए हुए सन्त पुरुषों के मार्ग पर चलता हैं, तथा जो तपस्त्री है वही धूल से भरे हुए पक्षी की भांति अपने कर्मको भटकर देता है, दूसरा कोई नहीं । [ ११, १३-१ ] . . 1
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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