SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - .. - vvvvvvvvv................ AMWww.m vwnAvvv v .... .. ...... सूत्रकृतांग सूत्र PANAANAAMKhanAmAnnnnnnnnnnrnAAAAA. AnnnnnnAmAARAMwww. - - - परन्तु इस सत्य-ज्ञान का विचार न करके अनेक श्रमण और ब्राह्मण (विभिन्न वादों के प्रचारक) अपने अपने मत-मतान्तरों को पकडे हुए हैं और विपय-भोगों में लीन रहते हैं। कितने ही मानते हैं कि " इस संसार में जो कुछ है वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पंचभूत ही हैं। छठा शरीर या जीव इन पांचों में से उत्पन्न होता है। मतलब यह कि इन पांचों के नष्ट होने पर इनके. साथ शरीर-रूप जीव का भी अन्त हो जाता है।" [६-८] दूसरे कितने ही मंद-बुद्धि आसक्त लोग ऐसा कहते हैं कि, “घडा, ईंट आदि में मिट्टी ही अनेक रूप दिखाई देती है, उसी प्रकार यह विश्व एक आत्मरूप होने पर भी पशु, पक्षी, वन-वृक्षादि के रूप में अनेक दिखाई देता है।" इनका कहा मानकर चलने वाले पाप कर करके दुःखों में सडा करते हैं [१-१०] और कितने ही दूसरे ऐसा मानने वाले हैं कि, “आत्मा या जीव जो कुछ है, यह शरीर ही है, अतएव मरने के बाद ज्ञानी या अज्ञानी कोई कुछ नही रहता; पुनर्जन्म तो है ही नहीं और न हैं पुण्य-पाप या परलोक . ही। शरीर के नष्ट होते ही उस के साथ जीव का भी नाश हो जाता है। [११-१२ ] और कुछ दूसरे तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि, " करना-कराना आदि क्रिया प्रात्मा नहीं करता-वह तो अकर्ता है ।" [ १३ ] ___ इस प्रकार कहने वाले लोग इस विविधता से परिपूर्ण जगत् का सत्यज्ञान तो फिर कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? प्रवृत्तियों के कीडे ये अज्ञान लोग अधिक-अधिक अन्धकार में फंसते जाते [४] हैं। टिप्पणी-पंच भूतों से उत्पन्न जीव को माननेवालों के लिये तो जन्मान्तर में पुण्य-पाप के फल को भोगनेवाला कोई
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy