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________________ (६१) । विचारे वे क्षद्रजीवोंकी जान निकल जाय वैसे शस्त्र समान घातक पदार्थ वपरासमें लेनेके वास्ते हिदु-आर्य मात्रको और विशेष करके कुल जैनोंको तो साफ मना ही है जिरो दुरस्त ही नही है. अल्प खर्च और अल्प महेनतसे सेवन करने में आता हुवा भारी दोष दूर हो सके वैसा है; तथापि वे दरकारीसे उनकी उपेक्षा किये करै, ये दयालु जीवोको क्या लाजिम है ? बिलकुल नहीं ! वास्ते उमेद है कि उस संबंध धर्मकी कुछ भी फि रखनेवाले या तरकी करनेवाले उनका तुरत विचार करके अमल करेंगे. दुसरी भी उपर बताई गई चलनादिक क्रिया करनेकी जरूरत पडती है, उनमें बहुत ही उपयोग रखकर जीवोंकी विराधना न करते जयणा पालन करनी चाहिये. चलने के वस्त पूर्णपणेसे जमीनपर समतोल नजर रखकर एकाग्र चित्तसे वर्तन रखनेमें, और बैठने, ऊठनेमें, खडे रहने-सोनेमें, भी उसी तरह किसी जीवको तकलीफ न होने पावै वैसी सावचेती रखकर रहना चाहिए. भोजन संबंध तो जैनशास्त्र प्रसिद्ध बाइस अभक्ष्य और वत्तीस अनंतकाय छोड कर, और दुसरे भोज्यपदार्थंभी जीवाकुल नही है ऐसा मालुम हुवे बाद, तथा जानकरके या अनजानते जीवों का संहार करके बनाया गया न होय पैसेही उपयोग लेने चाहिए. वो भी दिनमे प्रकाशवाली जगहमें पुख्ते परतनमें रखकर उपयोग लेने चाहिए कि जिसे स्वपरकी बाधा-हरकत के विरहसे जयणा माताकी उपासना की कही जावै. भाषण भी हितकारी और कार्य जितना-(Short and Sweet) तथा धर्मको दखल न पहुंचने पावे वैसा और जैसा जहा समय उपस्थित हो वहा वैसाही ( समयोचित ) बोलना. और बोलने के' परस्त विरतिवंतको मुहपत्ति और गृहस्थको भी इंद्र महाराजकी
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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