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________________ (३७) सदुपदेश सार संग्रह १ जीवदया हरहमेश जयणा पालनी, किसी जीवको दुःख या पीडा हो तसा कुच्छ भी कार्य कभीभी समझकर देखकर करना नहि और करानाभी नहि. २ झूठ बोलना नहि क्यों कि तिरसे दूसरे सामनेवाले मनुष्यको अपने पर अविश्वास आता है; और कभी सत्यभी मारा जाता है. ३ चोरी करनी नहि चोरी करनेवाला कभी सुखी नहि होता है. चोरीसे संपादन किया हुवा धन माल घरमा रहेताही नहि, चोरका कोई विश्वासभी नहि करता. चोर मरण आये विगरही मरता है याने फांसी वगैरा वूर हालसे मरता है. चोर भटकती फिरती हरामके माल खानेवाली भैसकी तरह असंतोषी होता है. ४ व्यभीचारभी करना नहि परस्त्रीगमन और वेश्यागमन भाइयोंको, और परपुरुषादि गमन बाइयोंको अवश्य त्याग देनेही लायक है. ऐसा कर्म लोक विरुद्ध होनेसे निंदापात्र होता है, कुलको कलंक लगता है और नरकादि दुर्गति प्राप्त होती है. ५ अत्यंत तृष्णा रखनी नहि अति लोभ दुःखकाही मूल है और लोभ अनेक पापकर्म करानेके लिये जीवको ललचाके दुर्गतिमें डालता है. ६ क्रोध नहि करना क्रोध अग्निके समान संतापकारी है. प्रथम आपहीको संतापता है. और जो सामनेवाला मनुष्य समझदार क्षमावंत नहि हो तो तिस्कोभी संताप कराता है क्रोधको टोल देनेका उत्तम उपाय क्षमा, समता वा धैर्य है. ७ अभिमान करना नहि जो सल्स अहंकार करते है सो
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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