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________________ (३५) ६७ राग द्वेष करना नहि... काम, रोह, अभिप्वंग वगैरा रागके पर्याय शब्द है, और द्वेष, मत्सर, ईर्ष्या, असूया निन्दादि रोपके पर्याय है. स्फटिक रत्न समान निर्मल आत्मसत्ताको राग द्वेषादि दोष महान उपाधिरुप होनेसे विवेकवंत जनोने यत्नसे परिहरने योग्य है. जहांतक महा उपाधिरुप ए रागद्वेषादि दोष दूर होवे नहि पहातक कबीभी आत्माका शुद्ध स्वरूप प्रकट हो सकता नहि, वो रागादि कलंक सर्वथा टल-हट गया कि तुरतही आत्मा परमात्मपदः पाता है. चास्ते परमात्मपदके कामीजनोने शत्रुभूत राग द्वेषादि कलंक सर्वथा दूर करनेको हद प्रयत्न करना जरूरका है. यतः __ " राग द्वेष परिणाम युत, मन हि अनंत संसार ॥ तेहिज रागादिक रहित, जानी परमपद सार ।" (समाधि शतक.) तथा ए कर्भकलंक दूर करनेके वास्ते संक्षेपसे बालजीवोके हितार्थ अन्यत्र भी कहा है कि: " शुद्ध उपयोगने समता धारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी ॥ कर्म कलंकको दूर निवारी, जीव परे शिवनारी ॥ आप स्वभावमें रे अवधू सदा मगनमें रहेना ॥" ___ इत्यादि रहस्य भूत ज्ञानके वचनोको मोक्षार्थी जीवोको परम आदर करना योग्य है, जिससे सब संसार उपाधीसे मुक्त होकर परमपद स्वरासे प्राप्त कर सके. सर्वज्ञ भाषित सदुपदेशका येही सारतत्व है. ज्यु बने त्युं चूपसे राग द्वेष मल सर्वथा दूर कर निर्मल हो जाना. राग द्वेष मल सर्वथा दूर हो जानेसे आत्माको शुद्ध चीतराग दशा प्राप्त होती है. तसी शुद्ध वीतराग दशा सोही परमात्मा अवस्था है. वो हरएक मोक्षार्थी सज्जनोंको राग द्वेषादि मलका सर्वथा परिहार करके-सद्विवेक बलसे प्राप्त करनी ही योग्य
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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