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________________ (6) कृपणको ऐसी सुबुद्धि पूर्व अंतराय के योगसे ध्यानमें पैदाही नहि होती है, तिस्रों वो विचारा केवल लक्ष्मीका दासत्वपना करके अंतमें आर्त्तध्यानसे अशुभ कर्म उपार्जके हाथ घसता - रीते हायसे यमके शरण होता है. वहां और उसके बादमी पूर्व अशुभ अंतराय कर्मके योगसे वो रंक अनाथको मह । दुःख भुक्तना पडता है. वहा कोई शरण- आधारभूत होता नहि है. अपनीही भूल अपनकोनडती है. कृपणभी प्रत्यक्ष देख सकता है कि कोइमी एक कवडीकौडीभी साथ बाधकर ले आया नहि और अवसान समय कौडी बांधकर साथ ले जा सकेगाभी नहि, तदपि बिचारा मम्मण शेठकी तराह महा अतिध्यान धरता और धन धन करता हुवा झूर झूरके मरता है. और अतमें वो बहोतही बुरे विपाक पाता है. यह सब कृपणताके कटुफल समझकर अपनकोभी तैसेही बूरे विपाक भुक्तन न पडे, इस लिये पानी पहेले पाल बांधने की तरह अन्चलसेही चेतकर अपनी लक्ष्मीके दास नहि लेकिन स्वामी बनकर उस्का विवेकपूर्वक यथास्थानमें व्यय करके तिस्की सार्थकता करनेके लिये सद्गृहस्य भाइयों को जाग्रत होने की खास जरूरत है. नहि तो याद रखना कि, अपनी केवल स्वार्थ वृत्तिरूप महान् भूलके लिये अपनकोहि आगे दुःख सहन करना पडेगा, इसिलिये हृदयमें कुछमी विचार-पश्चाताप करके सच्चा परमार्थ मार्ग अंगीकार कर अपनी गंभीर भूल सुधार लेनेको चुकना सोन्याने सद्गृहस्थोंको योग्य नहि है. श्री सर्वज्ञ प्रभुने दर्शाया हुवा अनत स्वाधीन लाभ गुमा देके और अंतम रीते हाथ घिसते जाकर परभवमे अपनेही किये हुवे पापाचरण के फलका स्वाद अनुभव यह कोइभी रीति से विचारशील सदगृहस्थाको लाजीम शोभारुप नहि है. तत्वज्ञानी पुरुषों के यही वचनोको अमृत बुद्धिसे अंगीकार कर विवेक पूर्वक आदरते हैं सो अत्र और परत्र अवश्य सुखी होते हैं.
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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