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________________ कवीभी उचरना नहिं. मृदुभाषा म्हामनेवालेकोभी पसंद पडती है. चाहे तैसा स्वार्थ भोगसे हामनेवालेका हित होय पैसाही विचारकर बोलना. सज्जनकी तैसी उत्तम नाति कवभिी उल्लंपनी नहि. लोगोंमेंभी कहेवत है कि 'शकरसे जहांतक पित्त शमन हो जाय यहां तक चिरायता काहेकु पिलाना चाहिये ?' ___ १३ किसीको कवीभी जूठा कलंक नहि देना, ___ किसीको भूठा कलंक देनेरु५ महान् साहससे बुराही परिणाम __ आनेके उग्र संभवसे सर्वथा निध तथा त्याज्य है. दूसरेको दुःख देनेकी चाहना करने वाला आपही दुःख मांग लेता है.क्योंकि कहेवत हैं कि खट्टा खोदे सोही पडे.' याने जनको इतनीभी शिखामन वस है. जैसे कुशिक्षितका अपनाही शस्त्र अपनाही प्राण लेता है तिन्हके साहश इन्कोभी समझकर - सच्चे सुखार्थी होकर __ सत्य और हित मार्गपरही चलनेकी जरुरत रखनी उचित है. कहे तभी चली आती है कि 'सांचको काहेकी आंच !' १४ किसीकोभी आक्रोश करके कहेना नहि.. _ कोप करके किसीको सच्ची बातमी कहेनेसे लाभके बदलेमें गैरलाभ हाथ आता है. इस वास्ते आक्रोश करके कहना छोडकर स्वपरको हितकारी सच्ची बात और नम्रताइसे विवेकपूर्वकही कहेनेकी आदत रखनी चाहिये. समजदार मनुष्यको लाभालामका विचार करकेही वर्तना वटित है. यही कठिन सज्जन रीति है कि जो हर एक हितार्थियों को अवश्य आदरणीय है. १५ राबके उपर उपकार करना. मेवकी तरह सम विषम गिनना छोडकर सबपर समान हितबुद्धि रखनी. वृक्ष नीच उंच सबको शीतल छांड देता है, गंगाजल सवका समान प्रकारसे ताप दूर करता है, चंदन सबको समान
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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