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________________ (१०६) ( १८४ ) बीजी पण अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आश्रव, संवर, निर्जरा, लोक स्वभाव, बोधि दुर्लभ अने स्वतत्वनु चिंतनरुप द्वादश अनुप्रेक्षा,-भावना कही छे. , (१८५ ) भावना भवनाशिनी अर्थात् आवी उत्तम भावनाथी भव संततिनो क्षय थइ जाय छे, अने शांतरसनी वृद्धिथी चित्तनी शांति-प्रसन्नता थाय छे. माटे मोक्षार्थी जनोए अवश्य उक्त भावनाओनो अभ्यास कर्या करवो युक्त छे. (१८६)गमे तेटली कळा प्राप्त थाय, गमे तेवो आकरो तप तपाय, अथवा निर्मळ कीर्ति प्रसरे परंतु अंतरमा विवेक कळा जो न प्रगटी तो ते सर्व निष्फज छे. विवेक कळाथी ते सर्वनी सफळता छे. (१८७) विवेक ए, एक अभिनव सूर्य या अभिनव नेत्र छे. जेथी अंतरमा वस्तु तत्त्वनु यथार्थ दर्शन थाय ५७ अजवाळु थाय छे; माटे बीजी बधी जजाळ तजीने केवळ विवेककळा माटे उद्यम . करवो युक्त छे. (१८८ ) सत् समागम योगे हितोपदेश सांभळवाथी या तो जाप्त प्रणीत शास्त्रना चिर परिचयथी विवेक प्रगटे छे. (१८९ ) विवेकवडे सत्यासत्यनो निर्णय करी शकाय छे. ते विना हिताहित, कृत्याकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, उचितानुचित के गुणदोषनी खानी थइ शकती नथी. विवेक बडेज असत् पस्तुनो त्याग करीने सद वस्तुनो स्वीकार करी शकाय छे. (१९०) जेम निर्मळ अरिसामा सामी वस्तुन बराबर प्रतिबिंब ५डी रहे छे. तेम निर्मळ विवेकयुक्त हृदयमा वस्तुनुं यथार्थ भान थाय छे. जेम सूक्ष्म दर्शक यंत्रथी सुक्ष्म वस्तु सहेलाइथी देखी शकाय छे, तेम विवेकना अधिकाधिक अभ्यासथी सुक्ष्ममा सुक्ष्म ने दुरमा दुर रहेला पदार्थहैं यथार्थ भान थइ शके छे; माटेज ज्ञानी म
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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