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[ ५८ ] अलख रूप यामें वसे, अनहद नाद अनूप । ब्रह्मरंध्र आसन सजै, रच्यो अनादि सरूप ॥२॥ सुमिरन याको साधिके, रचिहु ग्रन्थ मति मानि । रत्न परीक्षा देखि फै, भाषा करहु वखानि ।। ३ ।। आन कवीसर के किए, संस्कृती सब ग्रन्थ । ताते मो मन में भई, भाषा रस गुन ग्रंथ ।। ४ ।।
सोरठा भाषा रस को मूल, भाषा सब को बोध कर । तातें हम अनुकूल, भाषा कारन मन करयौ ॥ ६ ॥ सूरति गुन मूरति जिहां, वसत लोग धन आढ । ताहि विलोक कुबेर कत, मान धरत मनि गाढ ॥ ७ ॥ तहाँ वसत दातार मनि, गुनी धनी सुचिसील ।। भाग्यवंत चतुरन चतुर, भीम साहि लछि लील ॥८॥ शंकर शंकर तास सुत, कुल मंडन जस जास।। ताहि विलोक विचछन ही, होवत हीयै प्रकास ॥ ९ ॥ श्री श्रीवंश उद्योत कर, धरमवंत धुरि धीर । सकल साह सिरदार घर, भंजन दारिद नीर ॥१०॥ ताकी इच्छा इह भई, रतन सबन ते सार । या की भाषा करि पढ़े, गढ़े हीयन दिढ हार ॥११॥ ताकी रुचि सुचि साधके, रचिहुं चित्त धरि चुप । मन वच क्रम मग पाइ वर, मनि जिन आनहु कोप ॥१२॥ वाचक रस प्रकास कर, रत्न परिच्छा भेद । कहत रत व्यवहार इह, मनसौं धरयो उमेद ॥१३॥ संवत सतरह से अधिक, साठि एक करि भौंन । भगहन सुदि पंचम दिने, गुरु मुख लहि गुरु भोन ॥१४॥ ऋषि सबै कर जोरि के, मुनि अगस्ति ढिग आइ ।
पूछन रत्न विचार सब, विधि सो प्रणभी पाय ॥१५॥ अंत
छप्पय विद्या विनय विवेक विभौ धानी विधि ग्याता ।
जानत सकल विचार सार शास्त्रन रस श्रोता । भीमसाहि कुलभान साहि शंकर शुम रछन ।
पढत गुनत दिन रयन विविध गुन जानि विचछन । कुलदीपक जीपक अरपि भरीया लछि भंडार जिहि ।
दोहि रस व्यवहार रस इह प्रारथना कीन तिहि ॥७७॥