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________________ [ ३६ ] अंत अपने अपने कंत सू, रस घस रहिया जोइ । उदैराज उन नारि कू, जमें दुहागन होइ ॥ ७७ ॥ जां लगि गिरि सायर अचल, जाम अचल दृ राज । तां लगि रंग राता रहै, अचल जोड़ि व्रजराज ॥ ७८ ॥ ___ इति श्री वैद्य विरहिणी संपूर्णा । . लेखनकाल-संवत् १७७२ वर्षे कार्तिक सुदि १४ तिथौ प्रति-पत्र २ । पंक्ति १७ । अक्षर ५२ । । साइज १०४४॥ विशेप-अक्षर बहुत सुन्दर हैं । विरहिणी नारी वैद्य के पास जाती है और कामातुर हो अपना सतीत्व नष्ट कर देती है । इसका श्रृंगार रसमय वर्णन है । (अभय जैन ग्रन्थालय) (३०) साहित्य महोदधि सटीक । रावत गुलावसिह । सं० १९३० लग० । आदि गवरी उवटणी करत, गुटिका किय चुनि गाद । ताके अंगज त्रय भये, सुतरु तुमरु नाद ॥ १ ॥ अर्थ-एक समय गवरी कैलास मे उवटणो नाम अन्न विकार को मालस करावते हुते । तदा वह उबटणा की गाद परिमणु तिकों भेगी करिके तीनि गुटका कीनी । पुरुष रूप की वह गुटिका के तीन पुत्र प्रगट कीन्हे । वड़ा पुत्र को नाम सूतजी, दूजा को नाम तुमुलजी, तीजा को नाम नादजी, यह तीन पुत्र गवरी के भये । अंत एक दिवस उदल नृप, मम प्रति कहो यह कत्थ । रचिदौ ऐसो ग्रन्थ तित, मिले काव्य कृत सत्य ।। १० ॥ तव में कीनो ग्रन्थ यह, शिशु हित सूधपलेत । काव्य अंग वेदांत अरु, प्राकृत राग समेत ॥ ११ ॥ इति श्री चारणान्वय महडू कवि रावत गुलाबसिंह विरचित साहित्यमहा ।' स्तरणी टीकायां नृपवंश निरुपणे अमुक खंड ॥ ११ ॥ लेखनकाल–सं १९६३ प्रति-पत्र १७,
SR No.010724
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherPrachin Sahitya Shodh Samsthan Udaipur
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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