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________________ __ १५२ ] संभवतः।ये उनसे अभिन्न ही होंगें। दूलह विनोद की प्रति का केवल प्रथम पत्र प्राप्त होने से कवि का परिचय एवं रचनाकाल ज्ञात नहीं हो सका । इसकी पूर्ण प्रति कहीं प्राप्त हो तो हमें सूचित करने का अनुरोध है। (४४) देवहर्ष ( १०५-१०७ )-आप खरतरगच्छीय जैन यति थे। श्री जिनहर्षसूरिजी के समय में रचित इनकी 'पाटण गजल' (सं० १७५९ फाल्गुन) 'डीसा गजल' के अतिरिक्त 'सिद्धाचल छन्द' हमारे संग्रह में है। (४५) धर्मसी ( ४३ ) ये भी खरतरगच्छीय वाचक विमल हर्पजी के शिष्य थे। इनका दीक्षा अवस्था का नाम धर्मवद्धन था । अपने समय के ये प्रतिष्ठित एवं राज्य-मान्य विद्वान थे। इनके सम्बन्ध मे मेरा विस्तृत लेख राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्द्धन' शीर्षक राजस्थानी वर्ष २ भाग२ मे प्रकाशित है। अतः यहाँ विस्तृत परिचय नही दिया गया । (४६) नगराज (१२५)-संभवतः ये खरतरगच्छीय जैन यति थे । १८ वी शताब्दी मे अजय राज्य के लिय आपने "सामुद्रिक भाषा" नामक ग्रन्थ बनाया। (४७) निहाल (११०)-ये पावचन्द्रसूरि संतानीय हर्षचन्द्रजी के शिष्य थे। इनकी रचित बंगाल की गजल (सं० १७८२-९५) के अतिरिक्त निम्नोक्त रचनाये ज्ञात (१) ब्रह्मवावनी, सं० १८०१ कार्तिक सुदि ६ मुर्शिदाबाद (२) माणकदेवी रास, सं० १७९८ पौष वदी १३ मुर्शिदाबाद(प्र० राससंग्रह) (३) जीवविचार भाषा सं० १८०६ चैत सुदि २ बुध मुर्शिदाबाद (४) नवतत्व भाषा, सं० १८०७ माघ सुदि ५ "बंगाल गजल ऐतिहासिक सार के साथ मुनि जिनविजयजी ने भारतीय विद्या वर्ष १ अंक ४ में प्रकाशित करदी है।। (४८) नंदराम (१७)-इन्होंने बीकानेर नरेश अनूपसिहजी की आज्ञा से ". रस ग्रन्या का सार लेकर "अलसमेदिनी" नामक ग्रन्थ बनाया । . - (४९) परमानंद (१२६)-ये नागपुरीय लोकागच्छ के वीरचन्द्र के शिष्य थे। इन्होने लक्ष्मीचन्द्र (सूरि) एवं बीकानेर नरेश सूरतसिह के समय में (सं० १८६० माघ सुदि) में विहारी सतसई की संस्कृत टीका बनायी। (५०) प्रेम (२५)-इन्होंने सं० १७४० के चैत सुदि १० को प्रेममंजरी प्रन्य बनाया।
SR No.010724
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherPrachin Sahitya Shodh Samsthan Udaipur
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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