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________________ (5) आकाश और (6) काल । किन्तु जीव और अजीव के भेद मे द्रव्य को दी भागो मे भी विभाजित किया जा सकता है क्योकि पुद्गल मे लेकर कान तक के सभी द्रव्य अजीव मे समाविष्ट है (3) । इम तरह मे प्राचार्य कुन्दकुन्द एक और अनेकत्ववादी है तो दूसरी ओर द्वित्ववादी, परन्तु यदि मत्ता मामान्य के नप्टिकोण से विचार किया जाय तो जीव-अजीव का भेद ही समाप्त हो जाता है । मना सव द्रव्यो मे व्याप्त है (140)। इम अपेक्षा में मव द्रव्य एक ही है। अपने विशेप गुणो के कारण उन सव द्रव्यो में भेद है किन्तु मत्ता की अपेक्षा गव द्रव्यों में अभेद है । यह निश्चित है कि कोई भी द्रव्य सत्ता का उल्लघन नहीं कर सकता (1)। यह सत्ता सामान्य का दृष्टिकोण प्राचार्य कुन्दकुन्द को एकत्ववादी घोपित करता है। इस तरह से एकत्ववाद, द्वित्ववाद और अनेकत्ववाद तीनो ही आचार्य कुन्दकुन्द के द्रव्य मे वर्तमान है । अब हम यहा प्रत्येक द्रव्य को पृथकापृथक् व्याख्या करेंगे। जीव अथवा आत्मा-आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जीव अथवा प्रात्मा स्वतत्र अस्तित्ववाला द्रव्य है । अपने अस्तित्व के लिए न तो यह किमी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई और दूसरा द्रव्य है, सब द्रव्यो मे जीव ही श्रेष्ठ द्रव्य है, क्योकि केवल जीव को ही हित-अहित, हेय-उपादेय, सुख-दुख आदि का ज्ञान होता है (5) । अन्य द्रव्यो-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश काल मे इस प्रकार के ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है । द्रव्य की मामान्य परिभाषा के अनुसार आत्मा परिणामी-नित्य है । द्रव्य-गुण अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है किन्तु पर्याय अपेक्षा से परिणामी । आत्मा के ज्ञानादि गुणो की अवस्थाए परिवर्तित होती रहती है तथा ससारी आत्मा-विभिन्न जन्म ग्रहण करता है, इन अपेक्षाओ से प्रात्मा परिणामी है और आत्मा कभी भी इन परिवर्तनो मे नष्ट नही होता, इस अपेक्षा से नित्य है (145, 146, 147) । यहा यह कहा जा सकता है कि यह लक्षण ससारी आत्मा मे तो घटित हो जाता है, किन्तु मुक्त आत्मा मे नही । किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योकि मुक्त-आन्मा की नित्यता के विपय मे तो सदेह है ही नही और उसमे ज्ञानादि गुणो का स्वरूप परिणमन होता है इस अपेक्षा से वह परिणामी भी सिद्ध होती है । अत आत्मा द्रव्य-गुण-दृष्टि से नित्य और पर्याय- दृष्टि से परिणामी स्वीकार किया गया है। यहा यह ध्यान देने योग्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार आत्मा एक नही अनेक अर्थात् अनन्त माने गये है । प्रात्मा का लक्षण चैतन्य है (7) इम विशेपता के कारण आत्मा का अन्य द्रव्यो से भेद होता है । यह चैतन्य ज्ञानात्मक, (५)
SR No.010720
Book TitleAacharya Kundakunda Dravyavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1989
Total Pages123
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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