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________________ अध्याय ] प्राचार्यश्री तुलसी के अनुभव चित्र [ ५१ सुधार हो जाये । इसे प्रामाणिक करने के लिए मैंने इधर में नव-दीक्षित साधुनों पर कुछ प्रयोग किये हैं। चलते समय इधरउधर नहीं देखना, बातें नहीं करना, वस्त्रों के प्रतिलेखन के समय बातें नहीं करना, अपनी भूल को नम्रभाव से स्वीकार करना, उसका प्रायश्चित करना, प्रादि आदि । इससे उनकी प्रकृति में यथेष्ट परिवर्तन पाया है। पूरा फल तो भविष्य बतायेगा।" "माज के बालक साधु-साध्वियों के जीवन को प्रारम्भत: संस्कारी बनाना मेग स्थिर लक्ष्य है। इसमें मुझे बड़ा मानन्द मिलता है।" "साधुनों को किस तरह बाह्य विकारों से बचा कर आन्तरिक वैराग्य-वृत्ति में लीन बनाया जाये, इस प्रश्न पर मेरा चिन्तन चलता ही रहता है ।"3 "इस बार साधु-समाज में प्राचार मूलक साधना के प्रयोग चल रहे हैं। साधु-साध्वियों से अपने-अपने अनुभव लिखाए । वे प्रामाणिकता के साथ अपनी प्रगति व खामियों को लिख कर लाये । मुझे प्रसन्नता हुई। आगामी चातुर्मास में बहत कुछ करने की मनोभावना है।"४ साधु-साधना में ही है, सिद्धि में नहीं । वे समय पर भूल भी कर बैठते हैं । प्राचार्यश्री को उमसे बहुत मानसिक वेदना होती है। उसी का एक चित्र है ; "प्राज कुछ बातों को लेकर माधुषों में काफी ऊहापोह हुआ । पालोचनाएं चलीं, कुछ व्यंग्य भी कमे गये । न जाने, ये पादने क्यों चल पड़ीं। कोई युग का प्रभाव है या विवेक की भारी कमी ? आखिर हमारे मंघ में ये बातें सुन्दर नहीं लगती। कुछ माधुणों को मैंने मावधान किया है। अब हृदय-परिवर्तन के सिद्धान्त को काम में लेकर कुछ करना होगा।' गृहस्थो के जीवन-निर्माण के लिए भी प्राचार्यश्री ने समय-समय पर अनेक प्रयत्न किये हैं। उन्हें जो भी कमी लगी, उम पर प्रहार किया है और जो विशेषता लगी, उमका समर्थन किया है। "अाज मित्र-परिषद् के सदस्यों को मौका दिया। उन्होंने विशिष्ट मेवाएं दी हैं। एक इतिहास बन गया है। मैंने उनमे एक बात यह कहा है, यदि तुम्हे आगे बढ़ना है नो प्रतिशोध की भावना को दिल से निकाल दो।" अणुव्रत-आन्दोलन इमी परिवर्तनवादी मनोवृत्ति का परिणाम है । वे स्थिति चाहते हैं, पर अाज जो स्थिति है, उममे उन्हें सन्तोष नहीं है । वे न्यूनतम संयम का भी अभाव देखते हैं तो उनका मन छटपटा उठता है। वे सोचते रहते है -जो इष्ट परिवर्तन पाना चाहिए, वह पर्याप्त मात्रा में क्यों नहीं पा रहा है ? इसी चिन्तन में से अनेक प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं। 'नया मोड' का उद्भव भी इसी धारा में हुआ है। समाज जब तक प्रचलित परम्परात्रों में परिवर्तन नहीं लायेगा, तब तक जो संयम इष्ट है, वह संभव नहीं । उमके बिना एक दिन मानवता और धार्मिकता दोनों का पलड़ा हल्का हो जायेगा। उनके हित-चिन्तन में बाधाएं भी कम नही है। कई बार उन्हे थोडी निराशा-मी होती है। किन्तु उनका प्रात्म-विश्वास फिर उमे झकझोर देता है-"इधर मेरी मानसिक स्थिति में काफी उतार-चढ़ाव रहा । कारण, मेरी प्रवृत्ति सामूहिक हित की ओर अधिक आकृष्ट है और मैं जो काम करना चाहता है, उसमें कई तरह की बाधाएं सामने पा रही हैं, इसमे मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है । मेरा प्रात्म-विश्वाम यही कहता है कि ग्राखिर मेरी धारणा के अनुसार काम होकर रहेगा, थोड़ा समय चाहे लग जाए।"" १ वि० सं० २०१० चैत्र कृष्णा १४, उदासर २ वि० सं०२.१० श्रावण शुक्ला १५, जोधपुर ३ वि० सं० २०११ मगसर कृष्णा ८, बम्बई-चर्चगेट ४ वि० सं० २०१२ जेठ शुक्ला १०, डांगर-महाराष्ट्र ५ वि० सं० २०१४ प्राषाढ़ कृष्णा, बीदासर ६ वि० सं० २०१६ कार्तिक कृष्णा ६, कलकत्ता ७ वि.सं. २००६ पौष शुक्ला १०, श्रीडूंगरगढ़
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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