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________________ २६ । प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन पन्थ [प्रथम प्राधिपत्य होता जा रहा है। जीवन में जब व्यावहारिक सचाई नहीं, प्रामाणिकता नहीं, तो धर्माचरण कैसे सम्भव है ! इसके विपरीत भौतिकतावादी माने जाने वाले देशों की जब भारतीय यात्रा करते हैं तो वहाँ के निवासियों की व्यवहार सचाई और प्रामाणिकता की प्रशंसा करते हैं। दूसरी ओर जो विदेशी भारत की यात्रा करते हैं, उन्हें यहाँ की ऊँची दार्शनिकता के प्रकाश में प्रामाणिकता का प्रभाव खलता है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारा यह धर्माचरण जीवन-शुद्धि के लिए नहीं; पनर्जन्म की शुद्धि के लिए है। किन्तु यहाँ भी हम भूल रहे हैं। जब यह जीवन ही शुद्ध नहीं हुआ तो अगला जन्म कैसे शुद्ध होगा? यह सुनिश्चित है कि उपासना की अपेक्षा जीवन की सचाई को प्राथमिकता दिये बिना इस जन्म की सिद्धि और पुनर्जन्म की शुद्धि सर्वथा असम्भव है। अब प्रश्न उठता है कि जीवन की यह सिद्धि पौर पूनर्जन्म की शुद्धि कैसे हो सकती है ? स्पष्ट है कि चारित्रिक विकास के बिना जीवन की यह प्राथमिक और महान् उपलब्धि सम्भव नहीं। चरित्र का सम्बन्ध किसी कार्य-व्यापार तक ही सीमित नहीं, अपितु उसका सम्बन्ध जीवन की उन मूल प्रवृत्तियों से है जो मनुष्य को हिंसक बनाती हैं । शोषण, अन्याय, असमानता, असहिष्णुता, आक्रमण, दूसरे के प्रभुत्व का अपहरण या उसमें हस्तक्षेप और असामाजिक प्रवृत्तियाँ ये सब चरित्र-दोष हैं। प्रायः सभी लोग इनसे आक्रान्त हैं। भेद प्रकार का है। कोई एक प्रकार के दोष से प्राक्रान्त है, तो दूसरा दूसरे प्रकार के दोष से। कोई कम मात्रा में है, तो कोई अधिक मात्रा में । इस विभेद-विषमता के विष की व्याप्ति का प्रधान कारण शिक्षा और अर्थ-व्यवस्था का दोषपूर्ण होना माना जा सकता है। आज की जो शिक्षा-व्यवस्था है, उसमें चारित्रिक विकास की कोई निश्चित योजना नहीं है । भारत की प्रथम और द्वितीय पंचवर्षीय योजना में भारत के भौतिक विकास के प्रयत्न ही सन्निहित थे। कदाचित भखे भजन न होई गोपाला और भारत काह न करे कुकर्म की उक्ति के अनुसार भूखों की भूख मिटाने के प्राथमिक मानवीय कर्तव्य के नाते यह उचित भी था; किन्तु चरित्र-बल के बिना भरपेर भोजन पाने वाला कोई व्यक्ति या राष्ट्र प्राज के प्रगतिशील विश्व में प्रतिष्ठित होना तो दूर, कितनी देर खड़ा रह सकेगा, यह एक बड़ा प्रश्न है। अतः उदरपूर्ति के यत्न में अपने परम्परागत चरित्र-बल को नहीं गंवा बैठना चाहिए। यह हर्ष का विषय है कि तृतीय पंचवर्षीय योजना में इस दिशा में कुछ प्रयत्न अन्तनिहित है। हमारी शिक्षा कैसी हो, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है । बड़े-बड़े विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं। अनेक तथ्य और तर्क शिक्षा के उज्ज्वल पक्ष के सम्बन्ध में दिये जाते रहे हैं और दिये जा सकते हैं । निश्चित ही भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़े हैं; किन्तु आज का यह बौद्धिक विकास एक असंयत विकास है। कोरा-ज्ञान भयावह है, कोरा भौतिक विकास प्रलय है और नियंत्रणहीन गति का अन्त खतरनाक । दृष्टि ही विशुद्ध जीवन की धुरी है। दृष्टि शुद्ध है तो ज्ञान शुद्ध होगा; दृष्टि विकृत होगी तो जान विकृत हो जायेगा, चरित्र दूषित हो जायेगा। इस दृष्टि-दोष से हम सभी बहुत बुरी तरह ग्रसित है । भाषा, प्रान्त, राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता के दृष्टि-दोष के जो दृश्य देश में आज जहाँ-तहाँ देखने को मिल रहे हैं, ये यहाँ के चारित्रिक ह्रास के ही परिचायक हैं । घृणा, संकीर्ण मनोवृत्ति और पारस्परिक अविश्वास के भयावह अन्तराल में भारतीय आज ऐसे डूब रहे है कि ऊपर उठ कर बाहर की हवा लेने की बात सोच ही नहीं पाते। इस भयावह स्थिति को समय रहते समझना है अपने-आपको सम्भालना है। यह कार्य चरित्र-बल से ही सम्भव है और चरित्र को संजोने के लिए शिक्षा में सुधार अपरिहार्य है। प्रश्न है-यह शिक्षा कैसी हो? संक्षेप में जीवन के निर्दिष्ट लक्ष्य तक यदि हमें पहुँचना है, तो ऐसे जीवन के लिए निश्चित वही शिक्षा उपयोगी होगी, जिसे हम मंयम की शिक्षा की संज्ञा दे सकते हैं। संयमी जीवन में सादगी और सरलता का अनायास ही सम्मिश्रण होता है और जहाँ जीवन सादगी से पूर्ण होगा, उसमें सरलता होगी, वहाँ कर्तव्यनिष्ठा बढ़ेगी ही। कर्तव्य निष्ठा के जागृत होते ही व्यक्ति-निर्माण का वह कार्य, जो प्राज के युग की, हमारी शिक्षा की, उसके स्तर के सुधार की मांग है, सहज ही पूरा हो जायेगा। उन्नति की धुरी अर्थ-व्यवस्था भी दोषपूर्ण है। अर्थ-व्यवस्था सुधरे बिना चरित्रवान बनने में कठिनाई होती है और चरित्रवान्
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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