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________________ अध्याय ] प्राचार्यश्री तुलसी [ १९ · रहे हैं। सोभ सर्वव्यापी हो रहा है और उसके साथ प्रसत्य का साम्राज्य फैला हुमा है। असत्य-भाषण, अमत्य आचरण और सर्वोपरि असत्य-चिन्तन । एक बार १९१७ में महात्माजी ने कहा था कि हमारे चरित्र में यह दोष है कि हमारी 'हाँ' का अर्थ 'हाँ' और हमारे 'नहीं' का अर्थ 'नहीं' नहीं होता । वह दोष आज भी हम में वैसा ही है । परन्तु अमत्य के कन्धे पर स्वतन्त्रता का बोझ नहीं उठ सकता। दुर्बल चरिव देश को ले डूबेगा और मानव-समाज का भी अहित करेगा। इसीलिए महात्माजी ने वैयक्तिक और सामुहिक जीवन में धर्म को सर्वोच्च स्थान दिया था। उनका यह डिडिम-घोष था कि "साधन का महत्त्व साध्य से कम नहीं होता।' वह राजनीति में भी सत्य और अहिंसा को अनिवार्य मानते थे और भावी भारत में धर्म को। अपनी कल्पना को रामराज्य के नाम मे बराबर लोगों के सामने रखते गये। आज वह नहीं हैं। करोड़ों ने उनके उपदेशों को सुना था, अब भी पढ़ते हैं, परन्तु उनका अनुगमन कौन कर रहा है ? धर्म मूलक राज्य, रामराज्य की कल्पना पुस्तकों के पन्नों में ही रह गई। चरित्र की गिरावट की गति अबाध है। इससे घबरा कर कुछ लोगों का ध्यान स्व. श्री बुकमैन और उनके 'मारल रिमार्मामेंट' (नैतिक पुनरुत्थान) कार्यक्रम की ओर गया। कार्यक्रम भले ही अच्छा हो, पर हमारी सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न हैं और हम कम्युनिज्म के विरोध के आधार पर राष्ट्रीय चरित्र का उन्नयन नही कर सकते। उससे हमारा काम नहीं चल सकता। हमारी अपनी मान्यताएं हैं, परम्पराएं हैं, विश्वास हैं; हमारे अनुकल वही उपदेश हो सकते हैं जो हमारी अनुभूतियों पर अवलम्बित हों, जिनकी जड़ हमारे महस्रों वर्षों के प्राध्यात्मिक धरातल मे जीवनरस ग्रहण करती हों। समाज संगठन का भारतीय व पश्चिमी प्राधार पश्चिम के समाज-पंगठन का प्राधार है-प्रतिस्पर्धा; हमारा आधार है ~सहयोग । हम सभ्य समुत्थान के प्रतिपादक हैं; पश्चिम में व्यक्तियों और समुदायो के अधिकारों पर जोर दिया जाता है; हम कर्तव्यों, धर्मा पर जोर देते हैं, इम भूमिका में जो उपदेश दिया जायेगा, वही हमारे हृदयों में प्रवेश कर सकता है। प्राचार्यश्री तुलसी ने इस रहस्य को पहचाना है । वह स्वयं जन हैं, पर जनता को नैतिक उपदेश देते समय वह धर्म के उम मंच पर ग्वड़े होते हैं जिस पर वैदिक, बौद्ध, जैन आदि भारत-मम्भूत सभी सम्प्रदायों का ममान रूप मे अधिकार है। वह बालब्रह्मचारी हैं, माधु है, तपस्वी हैं, उनकी वाणी में प्रोज है। इसलिए उनकी बातों को सभी श्रद्धापूर्वक सुनते है। कितने लोग उनके उपदेश को व्यवहार में लाते है, वह न्यारी कथा है । परन्तु मुनने मात्र से भी कुछ लाभ तो होता ही है और फिर : रसरी प्रावत जात ते, सिल पर होत निसान। प्राचार्यश्री लोगों में जिन बातों का संकल्प कराते हैं, वे सब घूम-फिर कर अहिंसा या अस्तेय के अन्तर्गत ही प्राती हैं । पतञ्जलि ने अहिमा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को महावत वहा है और यह ठीक भी है। इनमें मे किसी एक को भी निबाहना कठिन होता है और एक के निबाहने के प्रयत्न में सबको ही निबाहना अनिवार्य हो जाता है। एक को पकड़ कर दूसरों में बचा नहीं जा सकता । मान लीजिये कि कोई यह मंकल्प करता है कि मैं अाज मे रिश्वत नहीं लुंगा और किसी माल में मिलावट नहीं करूंगा। संकल्प पूरा करने के लिए ही तो किया जायेगा, तोड़ने के लिए नही। पदे-पदे प्रलोभन पाते हैं, पुराने संस्कार नीचे की ओर खींचते हैं। लोभ का मंचरण करना कठिन होता है। चिन डावाडोल हो जाता है। वह जिन किन्हीं देवी शक्तियों पर विश्वास करता हो उनमे शक्ति की याचना करता है कि मेरा यह संकल्प कहीं टूट न जाये। मैं मिथ्याचरण को छोडकर सन्याचरण की ओर आता हूँ , कहीं परीक्षा में डिग न जाऊँ। वैदिक शब्दों में वह यह कहता है-प्रग्ने, व्रतपते, वतं चरिष्यामि, तच्छकेयम तन्मे राध्यताम् इवमहमन्तात्सत्यमुपमिहे दोषों को दूर करके पवित्र करने वाले भगवन् ! हे व्रतों के स्वामी, मैं व्रत का पाचरण करने जा रहा है। मुझको यकिन दीजिये कि मैं उसे पूरा कर सकू। उमको सम्पन्न कीजिये, मैं अनृत को छोड़ कर सत्य को अपनाता हूँ। व्रत का निभ जाना, प्रलोभनों पर विजय पाना, सरल काम नहीं है। बड़े भाग्य से इसमें सफलता मिलती है; और यह भी निश्चित है कि प्रती की गति एक व्रत पर ही अवरुद्ध न होगी। एक व्रत उसको दूसरे व्रत की ओर ले जायेगा। एक को पूरा करने के
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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