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________________ २७२ ] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रम्प समालोचनात्मक कुछ शब्द पिछली पंक्तियों में हमने संक्षिप्त रूप में 'श्री कालयशोविलास' का वृत्त दिया है। इसके समालोचन के लिए उपर्युक्त व्यक्ति तेरापंथ दर्शन का कोई अच्छा ज्ञाता ही हो सकता है। किन्तु मध्यस्य भाव से अपनी शक्ति के अनुरूप मैं भी कुछ शब्द कहना उचित समझता है और कुछ नहीं तो उसमे पादेश का पालन तो हो सकेगा। कोई काव्य अच्छा बना है या नहीं इसे देखने के लिए हमें उसके प्रयोजन के विषय में विचार करना चाहिए। सभी काव्यों के लिए एक मापदण्ड नहीं होता है। यह अवश्य है कि काव्य जितना अधिक विश्वजनीन हो, उतनी ही उसकी महत्ता अधिक बढ़ती है। उसमें वह विश्वहित की दृष्टि रहती है जो स्वत: उसे उच्चासन पर स्थापित करती है। इसके अतिरिक्त काव्य-शव्दाभिधेय कृतियों में सच्चा काव्यत्व भी होना चाहिए । केवल पद्यों में ग्रन्थित होने से कोई कृति काथ्य नहीं बनती। कई कवि यश के लिए काव्य-रचना करते हैं, कई धन के लिए, कई अमंगल की हानि के लिए, कई कान्तासम्मत-शब्दों में उपदेश प्रदान के लिए और कोई स्वान्तः सुख के लिए । श्रीकालू यशोविलास के रचयिता न यशः प्रार्थी हैं और न धनाभिलापी। किन्तु चतुर्थोल्लास के अन्त में आपने यह इलोक दिया है सौभाग्याय शिवाय विघ्न वितत अदाय पङ्कच्छिदे। प्रानन्दाय हिताय विभ्रमशत ध्यसाय सौख्याय च ।। श्री श्रीकाल यशोविलास विमलोल्लास स्तुरीयोयक। सम्पन्नः सततं सतां गुण भृतां भूयाच्चिरं भूतये ॥१॥ इसमे प्रतीत होता है कि काव्य के अन्य लक्ष्य भी उनकी दृष्टि से दूर नहीं रहे हैं । इनके कवि हृदय ने स्वान्तः सुख की अनुभूति तो की ही होगी, किन्तु गणनायक के रूप में संकड़ों भ्रान्तियों का उन्मूलन भी उनका अभीष्ट रहा है। गुरुयशोगान और गुरूपदेश को जनता के समक्ष मुस्पष्ट एवं सुग्राह्य शब्दो में रखना इसका एकमात्र ही नहीं तो कमसे-कम बबुत सुन्दर उपाय तो है । मुललित एवं रसात्मक शब्दों में इनको प्रस्तुत करना मानों सोने में सुगन्ध भरना है। हमें निश्चय है कि 'श्रीकालू यशोविलास' का समाधान पारायण किसी भी व्यक्ति को तेरापंथ के मुख्य सिद्धान्त समझाने के लिए पर्याप्त है । इसके मूलग्रन्थों और टोनाओं के उदाहरण विद्वानों के लिए भी पठनीय और मननीय हैं । ब्राह्मण ग्रंथों में जिस प्रकार रामायण और महाभारत काव्य होते हुए भी धर्मग्रन्थ हैं, उसी तरह 'श्रीकालू यशोविलास' काव्य के रूप में ही नहीं, तेरापंथी समाज के धर्मग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा। इसमें युक्तियुक्त रूप से जैन धर्म के तत्त्वों का निरूपण और अपने सिद्धान्तों का मण्डन है। मोक्षमार्ग में स्त्री का अधिकार, साधु के लिए दया का सच्चा स्वरूप, मुविहित दान, अल्पवय में भी दीक्षाधिकार और उसकी युक्तियुक्ता प्रादि स्थल तेरापंथी समाज को सदैव उसके सिद्धान्त समझने और विरोधी युक्तियों का शास्त्र और तर्क-सम्मत उत्तर देने का सामर्थ्य प्रदान कर उसकी रक्षा करेंगे। समाज के लिए उससे बढ़कर 'सोभाग्य शिव (मंगल) प्रानन्द और हित' का विषय क्या हो सकता है ? शुद्ध काव्य के रूप में भी 'श्रीकालु यशोविलास' सहृदय जनों के हृदय में स्थान प्राप्त करेगा। इसमें अनेक उत्कृष्ट छन्दों और बन्धों का प्रयोग है। भाषा गभीरार्थमयी होते हुए भी प्रसादगुणयुक्त है। सुन्दर राग और रागनियों से विभूपित, यह धर्म प्राण जनता का सुमधुर गेय काव्य है। अनेक कण्ठों की स्वरलहरी से नमो मार्ग को प्रतिध्वनित करती हुई इसकी पवित्र ध्वनि एक विचित्र स्फति उत्पन्न करती होगी। काव्य अधिकतर अतिशयोक्ति प्रधान होते हैं, किन्तु यह काव्य अनेक अलंकारों और काव्य-वृत्तियों का समूचित प्रयोग करता हुमा भी असत्य से दूर रहा है। मरुस्थल के लिए कवि ने लिखा है : रयणीय रेणु कणा शशिकिरणां, चलके माणक चान्दी रे। रात्री के समय धुलि के कण चांदनी में ऐसे चमकते हैं, मानो चांदी हो। किन्तु साप ही में कवि ने यह भी कहा है: मनहरणी परणी पदिनहु प्रति मातप र पोषीरें।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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