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________________ श्रीकाल यशोविलास डा० दशरथ शर्मा एम० ए०, पी-एच० डी० रीडर, दिल्ली विश्वविद्यालय चरित-लेखन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भारत ने जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को प्रादर्श रूप में देखा, उसे जनता के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। एक आदर्श वीर एक मादर्श राजा, एक प्रादर्श पुरुष विशेष क चरित चित्रित करने के लिए महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। जैन सम्प्रदाय ने भी उसी परम्परा को प्रक्षुण्ण रखते हुए केवल तीर्थंकरो के ही नहीं, अनेक शलाका-पुरुषों के चरित भी हमारे सामने प्रस्तुत किये। चाहे तो हम यह भी कह सकते हैं कि हमारा इतिवृत्त लिखने का ढंग प्रायशः प्रादर्शानुप्राणित रहा है। प्राचीन काल में अनेक अन्य शूरवीर, योद्धा और राजा भी हुए हैं। किन्तु भारत ने उन्हें भुला दिया है। उसके लिए यही पर्याप्त नहीं है कि किसी व्यक्ति ने जन्म लिया, राज्य किया या युद्ध किया हो, वह उसमें कुछ और विशिष्टता ढूंढता है उसमें वह विशिष्टता न हो तो उसके लिए ऐसे व्यक्तियों का होना या न होना एक बराबर है। ख्याति प्रिय राजाओं ने इस प्रवृत्ति के परिहार-रूप में अनेक प्रशस्तियों, ताम्रपत्रों और दरबारी कवियों के काव्यों द्वारा अपने को अमर करने का प्रयत्न किया है। हर्षचरित, नव साहसांक चरित, विक्रमांक देव चरिन, द्वयाश्रय-काव्य, पृथ्वीराज विजय काव्य प्रादि कुछ ऐसे ग्रन्थ है, जिनमें राजाओं का यशोगान पर्याप्त मात्रा में वर्तमान है। किन्तु ये ग्रन्थ भी वर्णित राजाओं की महत्ता से नहीं, श्रपितु बाण, बिह्नणादि कवियों के कवित्व के कारण जीवित है। आदर्शानुप्राणित भारत के जीवन में अमरत्व उसी कृति को मिलता है, जो हमारे सामने किसी प्रदर्श को उपस्थित करे । विशेषतः जैन सम्प्रदाय में तो देवाधिदेव नहीं है जो ज्ञान, शोध, मद, मान, नोभादि अठारह दोषों से मुक्त हो उसी के गुणगान मे मानन्द है। उसमे ही जगमरणादि दुःखों से मन्तप्त लोगों को कुछ नाम हो सकता है, उसी के प्रभाव से प्रभावित होकर जनता केवल्य मार्ग की ओर उन्मुख हो सकती है। सम्भवतः इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री तुलसी ने अपने दिवंगत गुरु ग्राचार्यप्रवर श्री कालूरामजी का चरित 'श्रीकालू यशोविलास' में प्रस्तुत किया है। भाषा भी मुख्यतः राजस्थानी ही रखी गई है, जिससे संस्कृत और प्राकृत मे अनभिज्ञ व्यक्ति भी श्राचार्यवर के उपदेश और जीवन से पूर्ण लाभ उठा सकें । शास्त्रों के अवतरण मूल अर्धमागधी आदि में है । किन्तु उनके साथ ही उनका राजस्थानी अनुवाद भी प्रस्तुत है । काव्य का संक्षिप्त वृत्त काव्य छः उल्लासों में विभक्त है। पहले उल्लास का प्रारम्भ तीर्थकर नाभेय, शान्तिनाथ और महावीर एवं स्वगुरु श्री कालूगणी को नमस्कार करके किया गया है। इसके बाद मरुस्थल, मरुस्थल के नागरिक और श्री कालगणी की जन्मभूमि खापर ( बीकानेर, राजस्थान) का वर्णन है। इसी नगर में बोवंशीय चोपड़ा जाति के बुधसिंह कोठारी थे। उनके द्वितीय पुत्र मूलचन्द और कोटासर के नरसिंहदास लुनिया की पुत्री छोंगा बाई के सुपुत्र हमारे चरित नायक श्री कालगणी ने वि० [सं०] १९३३ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया गुरुवार के दिन अत्यन्त शुभग्रहादियुक्त समय में जन्म लिया। इनका जन्म नाम शोभाचन्द था, किन्तु माता-पिता प्रेम से इन्हें कालू कहते। १९३४ में मूलचन्दजी के दिवंगत होने पर माँ इन्हें अपने पीहर ले गई। वहीं बाल्यकाल से ही उनमें वैराग्य की भावना बढ़ने लगी।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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