SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय] अग्नि-परीक्षा : एकमध्यपन [ २६१ है पुरुषों के लिए बुलो यह बसुधा सारी, पर नारी के लिए सबन की चारदीवारी। क्या पैरों को नृती नारी? जा सहे मापदाएं सारी। सिहनाद-वन में (जिसका नाम ही रोंगटे खड़े करने वाला है ) घोर निराशा के क्षणों में भी सीता एक सन्नारी के रूप में अपने प्रात्म-बल को जागृत करती है और इस प्राणान्तक संकट के हलाहल को अमृत बना कर पी जाती है। तभी तो लक्ष्मण कहते हैं : सहज सुकोमल सरल, गरल को अमृत करतो सोता विषम परिस्थितियों में जो कभी नहीं भय भीता सीता ने अपने प्रखण्ड सतीत्व के बदले क्या नहीं पाया-निर्वासन, नितिन, निन्दा, लांछना और अन्ततः पुरुष का विश्वासघात ! परन्तु विधि की ये विडम्बनाएं उसके प्राणों के सत्व का शोषण नहीं कर सकी । सीता ने जहर के घंट पर घुट पीकर ही नारी के लिए जीवन का यह तत्त्व-दर्शन प्राप्त किया था : अपने बल पर नारी तुझे जागना होगा, कृत्रिम प्रावरणों को तुझे त्यागना होगा। खो सन्तुलन भीत हो नहीं भागना होगा, सत्य कान्ति कामभिनव मस्त्र बागना होगा। 'अग्नि-परीक्षा में सोना एक परित्यक्ता पत्नी के रूप में ही नहीं, एक महिमामयी माता के रूप में भी हमारे सम्मुख उपस्थित होती है। उसका पत्नीत्व चाहे पाहत हो, लेकिन उसका मातत्व लवणांकुश जैसे पुत्र-रल पाकर सफलमार्थक है । वे जब माता के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए राम और लक्ष्मण जैसे विश्व-विश्रत वीरों से लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं तो उन्हें इन नवल किशोरों से लड़ने में एक प्रकार का सहज सकोच हो पाता है । इस अवसर पर सीता के सपूतों की प्रोजस्विनी वाणी गूंज उठती है : । कहणा किसी दीन पर करना, झोली किसी हीन की भरना, दया पात्र हम नहीं तुम्हारे, क्यों फैलायें हाथ ? लवणांकुश जगे पुत्रों को पाकर मीता कुछ क्षणों के लिए पति की प्रवंचना के अन्तर्दाह को भी भूल गई होगी। माता के रूप में ही नारी पुरुष की प्रवंचना और प्रताड़ना के ऊपर उट पाती है। सम्भवतः नारी अपने पुत्र के रूप में ही पुरुष को अपने सर्वान्तःकरण से क्षमा कर जाती है । पाता के अपमान का शोध सत्पुत्रों के द्वारा ही होता है : सस्पत्र कभी यों माता का अपमान नहीं सह सकते हैं, पाते ही सचमुच शुभ अबसर वे मौन नहीं रह सकते हैं। प्राचार्यश्री तुलसी ने कौशल्या और सीता के रूप में मात-हृदय की नवनीत कोमलता पीर मर्म-मधुरता को सजीव रूप में उपस्थित कर दिया है। लक्ष्मण के वन से लोट पाने पर माता सुमित्रा पूछती है, "तुम्हारे घाव कहां लगा था? जरा मुझे वह जगह तो दिखलाओ।" कौतुक प्रिय नारदजी भी माता की महिमा गाते हए सुनाई पड़ते हैं : वात्सल्य भरा मां के मन में, माधुर्य भरा मां के तन में, उस स्नेह-सुधा को सरिता का रस तुम्हें पिसाने माया हूँ।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy