SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ] प्रग्नि-परीक्षा : एक अध्ययन [ २५६ तुलसी की अग्नि-परीक्षा, जो सन् १९६१ में प्रकाशित हुई है। राम-कथा के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हुए प्राचार्यश्री तुलसी ने 'प्रशस्ति' में स्पष्ट कहा है : रामायण के हैं विविष रूप अनुरूप कथानक ग्रहण किया, निश्छल मन से कलना द्वारा समुचित भावों को वहन किया, वास्तव में भारत की संस्कृति है रामायण में बोल रही, अपने युग के संवादों से वह ज्ञान-ग्रंथियां खोल रही। आचार्यश्री तुलसी तेरापंथ के नवमाचार्य, अणुव्रत-आन्दोलन के प्रवर्तक एवं जन-दर्शन के एक महान व्याख्याता के रूप में राष्ट्र-व्यापी ख्याति प्राप्त कर चुके हैं, परन्तु उनके कवित्व का परिचय प्राषाभूति के प्रकाशन के साथ ही प्राप्त होता है। जन्मना राजस्थानी होने के कारण राजस्थानी भाषा में प्राचार्यश्री तुलसी द्वारा विरचित विपुल काव्य-सामग्री विद्यमान है, जिसमें पूर्वाचार्य श्रीकालगणी के जीवन से सम्बद्ध चरित-काव्य 'श्री कालू यशोविलास' प्रमुख रूप से उल्लेख्य है। विगत वर्षों में उत्तरी एवं मध्य भारत में विचरण करने के पश्चात् हिन्दी काव्य-सृजन की ओर आपके आकर्षण का मूत्रपात होता है। 'अग्नि-परीक्षा' में रामायण के उत्तरार्द्ध की कथा है, जो राम के लंका-प्रस्थान से प्रारम्भ होकर अग्निपरीक्षिता महासती सीता के जयनाद के साथ समाप्त होती है। स्पष्टतः प्राचार्यश्री तुलसी का मालोच्य काव्य राम-काव्य की जैन-परम्परा के अन्तर्गत ही परिगणित किया जा सकता है। प्राचार्यश्री तुलसी के राम गोस्वामी तुलसीदास के राम की भाँति "व्यापक, अकल, अनीह, अज निर्गुन नाम न रूप । भगत हेतु नाना विध करत चरित्र अनूप।" वाले मर्यादावतार नहीं है। वे पाठवें बलदेव हैं और उनकी गणना लक्ष्मण एवं रावण के साथ त्रिषष्टि महापुरुषों में की जाती है। जैन मतानुसार राम ने अपने जीवन के संध्या काल में साधु-जीवन अंगीकार किया था और कर्मक्षय कर सिद्ध पुरुप बन गए थे। जैनों के राम मोक्ष-प्रदाता नहीं है, उन्होंने स्वयं अपनी जीवन-मुक्ति के लिए साधना की थी। हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि अाज राम एक जीवन-मुक्त महापुरुष सिद्ध हैं। 'अग्नि-परीक्षा के दथरथ भी राम-वनवास के बाद जैन-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भरत राम से कहते है 'ली पूज्य पिताजी ने दीक्षा।' राम के अयोध्या प्रत्यागमन के बाद भरत भी जैन साधुत्व स्वीकार करने में विलम्ब नहीं करते हैं : भरत त्वरित मुनि बन चले, फर जागत सुविवेक । वासदेव-बलदेव का हमा राज्य-अभिषेक । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'अग्नि-परीक्षा' का प्रणयन वाल्मीकीय रामायण की परम्परा में न होकर, 'पउम चरिय' के प्रणेता विमल मूरि की जैन रामायण-परम्परा में हुआ है। जैनों में भी रामायण की दो परम्पराएं मिलती हैं, परन्तु गुणभद्र और पुष्पदन्त के 'उत्तर पुराण' में, जो दिगम्बर सम्प्रदाय में ही अधिक प्रचलित रहे हैं; सीता के परित्याग और अग्नि-परीक्षा की घटना का कहीं उल्लेख तक नहीं किया गया है। अतः प्राचार्यश्री तुलसी की 'अग्नि-परीक्षा' का सम्बन्ध विमलमूरि के 'पउम चरिय' की परम्परा से ही स्थापित किया जा सकता है। आलोच्य काव्य के कथात्मक विकास पर भी 'पउम चरिय' का सुस्पष्ट प्रभाव है। राम के द्वारा सीता का परित्याग, वनजंघ द्वारा मीना का संरक्षण, नारद द्वारा लवणांकुश को माता के अपमान की कथा सुनाया जाना, राम-लक्ष्मण के साथ लवणांकुश का युद्ध और अन्ततः सीता की अग्नि-परीक्षा आदि घटनाओं का विधान 'पउम चरिय' की परम्पानुसार ही किया गया है। 'अग्नि-परीक्षा' में अग्नि स्नाता सीता का प्रत्युज्ज्वल चरित्र ही प्रमुख रूप से उपस्थित किया गया है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के शब्दों में "वैदिक साहित्य में 'सीता' शब्द का प्रयोग अधिकतर हल से जोतने पर बनी हुई रेखा के लिए हमा है। किन्तु एक सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी भी है। एक अन्य सीता सूर्य की पुत्री है। विदेहतनया सीता वैदिक
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy