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________________ २५२ भाचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रत्य सत्य के प्रति उतना प्राग्रह नहीं रहता, जितना भाव-सत्य के प्रति होता है। भाव-सत्य को केन्द्र बिन्दु बनाकर बस्तु-सत्य (घटना) का चित्रण करते समय संत कवि की बाणी जितनी तत्वाभिनिवेशी बनी रहती है, कदाचित् पदार्थ के प्रति प्राग्रह रखने वाले सामान्य कवि की वाणी नहीं रहती। "शिवेतर क्षति' जिस काव्य का मूल स्वर हो उसमें यश पोर पर्थ की लिप्सा को स्थान नहीं रहता। प्राचार्यश्री तुलसी का निसर्ग कवि स्वयं तटस्थ भाव से इन सबको ग्रहण करके काव्य रचना में प्रवृत्त हुप्रा है, यह सभी काव्य ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट होता है। प्राचार्यश्री की लेखनी से अद्यावधि तीन हिन्दी काव्य-ग्रन्थ प्रकाश में पा चुके हैं। यों तो संस्कृत और मारवाड़ी में भी प्रापने काव्य-रचना की है, किन्तु इस लेख में मैं उनके दो प्रमुख हिन्दी प्रबन्ध काव्यों की ही चर्चा करूँगा। स्थानाभाव से हिन्दी के सभी ग्रन्थों की समीक्षा करना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है। प्रमुख कृतियों में 'पाषाढ़भूति' और 'अग्नि-परीक्षा' हैं। आषादभूति 'भाषाढभूति' एक प्रबन्ध काव्य है । प्रबन्ध काव्य की पुरातन शास्त्रीय मर्यादा को कवि ने रूढ़ि के रूप में स्वीकारन कर स्वतन्त्र रूप से कथा को विस्तार दिया है। सर्ग या अध्याय मादि का परम्परागत विभाजन भी इसमें नहीं है। वर्णन की दृष्टि से भी इस काव्य में शास्त्र का अनुगमन प्रायः नहीं हुआ है। वस्तुतः कवि की दृष्टि वर्ण्य वस्तु को जनमानस तक पहुँचाने की पोर ही अधिक रही है। कवि का अभिप्रेत है 'जनकाव्य' की शैली पर गेय रागों में कथा को श्रुति मधुर बना कर व्यापकता प्रदान करना । शास्त्र-मर्यादा के कठोर पाश में प्राबद्ध होकर उसे विद्वन्मण्डली तक सीमित बनाने की कवि की तनिक भी इच्छा नहीं है। जन-साहित्य परम्परा में यह शैली सुदीर्घ काल से विकसित होती रही है। प्राचार्यश्री ने उसी को प्रमाण माना है और उसके विकास में नई कड़ी जोड़ी है। यह काव्य मास्तिक भावना का प्रतिष्ठापक होने के साथ जीवन की दुर्दम प्रवृत्तियों का यथार्थ बोध कराने में भी सहायक है । मानव की दुर्ललित वासना वृत्ति किस प्रकार मानव को पाप-पंक में धकेल देती है और किस प्रकार वह इन्द्रियासक्ति के जाल में पड़ कर सन्मार्ग से च्युत हो जाता है, यह बड़ी रोचक शैली से व्यक्त किया गया है । 'आषाढभूति' का कथा-प्रसंग निशीथ सूत्र की चूणि व उत्तराध्ययन की अर्थ कथाओं से लिया गया है। प्राचार्य तुलसी ने अपनी उपज्ञात प्रतिभा और कल्पना के योग से सामान्य कथा को दीप्त कर दिया है। कथा के विवरण केवल घटनाश्रित न होकर दर्शन, अध्यात्म, लोक-व्यवहाराश्रित अनेक उपयोगी प्रसंगों से गुंथे हुए है । कथा के नायक प्राचार्य प्राषाढ़भूति को प्रारम्भ में दढ़ प्रास्तिक के रूप में चित्रित किया गया है, किन्तु अपने सौ शिष्यों को महामारी द्वारा अकाल कवलित देख कर और देवयोनि से वापस पाकर गुरु से न मिलने पर गुरु के मन का दृढ़ प्रास्तिक भाव संशय के अंधड़ भाव से हिल उठा । शिष्यों ने वचन दिया था कि देवयोनि से पाकर गुरु की खैर-खबर लेंगे, किन्तु एक भी शिष्य वापस न पाया। उन्हें लगा कि शास्त्र मिथ्या हैं, परलोक मिथ्या है, तत्वज्ञान की चिन्ता व्यर्थ है। इहलोक के सुख को तिलांजलि देना मूर्खता है। भोग की सामग्री की भवहेलना करके मैंने क्या पाया। भोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण इस संसार में रमना ही मानव का इष्ट है, ऐसी भ्रम बुद्धि उत्पन्न होने पर प्राचार्य प्राषाढ़भूति पथभ्रष्ट होकर लोभ के पंक-जाल में फंस गये। उन्होंने छः प्रबोध बालकों की हत्या की, उनके प्राभूषण छीने, चोरी की और पतन का मार्ग पकड़ा । ऐसी दशा मे वचनबद्ध उनका प्रिय शिष्य विनोद देवयोनि से पाया और उसने माषाढ़भूति का इस पाप-योनि से उद्धार किया। प्राषाढ़भूति पुनः प्रास्तिक मुमुक्षु बनकर सत्पथ पर मारूढ़ हुए। यही संक्षिप्त-सी कथा है। प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने काव्य को जनकाव्य बनाने के लिए लोक प्रचलित विभिन्न गेय रागों का माश्रय लिया है। राधेश्याम कथावाचक की रामायणी शैली का ग्रहण इस बात का प्रमाण है कि कवि इस काव्य का उसी शैली से प्रचार चाहता है। जैन दर्शन के गढ़ सिद्धान्तों को सरल और सुबोध शैली से बीच-बीच में गुम्फित कर प्राचार्यश्री ने इसे प्रारम्भ में चिन्तनप्रधान काव्य का लय दिया है, किन्तु बाद में घटनामों के वर्णन के कारण चिन्तन की गढ़ता कम होती जाती है। दार्शनिक चिन्तन की झलक नीचे के पदों में स्पष्ट देखी जा सकती है :
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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