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________________ तीर्थंकरों के समय का वर्तन डा० होरालाल चोपड़ा, एम० ए०, डी० लिट् लेवरार, कलकत्ताविश्वविद्यालय प्राज से ढाई हजार वर्ष पूर्व से, भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध के समय से अहिंसा के सिद्धान्त का निरन्तर प्रचार किया जा रहा है, किन्तु प्राचार्यश्री तुलसी ने अहिंसा की भावना को जिस रूप में हमारे सामने रखा है, वह प्रभातपूर्व ही है। अहिंसा का अर्थ केवल इतना ही नही है कि हम मनुष्यों अथवा पशुओं की भावना को आघात न पहुंचाएं, अपित जीवन का वह एक विधायक मूल्य है। वह मन, वचन व कर्म में सब प्रकार की हिंसा का निषेध करता है और समस्त चेतन और अचेतन प्राणियों पर लागू होता है। प्राचार्यश्री तुलसी ने अपने प्राचार्यत्व काल में अहिंसा की सच्ची भावना को, केवल उसके शब्द को ही नहीं, अपितु क्रियात्मक रूप से अपनाने पर बल दिया है। अहिंसा जीवन का नकारात्मक मूल्य नहीं है । गांधीजी और प्राचार्यश्री तुलसी ने बीसवीं शताब्दी में उसको विधायक और नियमित रूप दिया है और उसमें गहरा दर्शन भर दिया है। यह ग्राज की दुनिया की सभी बुराइयों की रामबाण औषधि है। दुनिया आज विज्ञान के क्षेत्र में तीव्र प्रगति कर रही है और सभ्यता की कसौटी यह है कि मनुष्य प्रकाश में अथवा ब्रह्माण्ड में उड़ सके, चन्द्रमा तक पहुंच सके अथवा समुद्र के नीचे यात्रा कर सके, किन्तु दयनीय बात यह है कि मनुष्य ने अपने वास्तविक जीवन का प्राशय भुला दिया । उसे इस पृथ्वी तल पर रहना है और अपने सहवासी मानवों के साथ मिलजूलकर और समरस होकर रहना है । गांधीजी ने जीवन का यही ठोस गुण सिखाया था और प्राचार्यश्री तुलसी ने भी जीवन के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण से इसी प्रकार क्रान्ति ला दी है। पुरातन जैन परम्परा में लालन होने पर भी उन्होंने जैन धर्म को आधुनिक, उदार और क्रान्तिकारी रूप दिया है जिससे कि हमारी प्राज की प्रावश्यकताओं की पूर्ति हो सके अथवा यों कह सकते हैं कि उन्होंने जैन धर्म के असली स्वर्ण से सब मैल हटा दिया है और उसे अपने उज्ज्वल रूप में प्रस्तुत किया है जमा कि वह तीर्थकरों के समय में था। प्रेम, सत्य और अहिंसा में हमको उस समय विरोधाभास दिखाई देता है, जब हम उनके एक साथ अस्तित्व की कल्पना करते हैं; किन्तु वे वास्तविक जीवन में विद्यमान हैं और जीवन के उस दर्शन में भी हैं, जिसका प्रतिपादन प्राचार्यश्री तुलसी ने किया है। यद्यपि यह प्रसंगत प्रतीत होगा, किन्तु यह एक तथ्य है कि विज्ञान और सभ्यता के जो भी दावे हों, मनुष्य तभी प्रगति कर सकता है, जब वह आध्यात्मिकता को अपनायेगा और अपने जीवन को प्रेम, सत्य और अहिमा की त्रिवेणी में प्लावित करेगा। जब इस प्रकार के जीवन को बदल डालने वाले व्यावहारिक दर्शन का न केवल प्रतिपादन किया जाता है, प्रत्युत उसे दैनिक जीवन में कार्यान्वित किया जाता है तो बाहर और भीतर से विरोध होगा ही। प्रणवत ऐसा ही दर्शन है, किन्तु उसके सिद्धान्तों में दृढ़ निष्ठा इस पथ पर चलने वाले व्यक्ति को बदल देगी। अणुव्रत प्रात्म-शुद्धि और प्रात्म-उन्नति की प्रक्रिया है। उसके द्वारा व्यक्ति को समस्त विसंगतियाँ लुप्त हो जाती हैं और वह उस पार्थिव उयन-पुथल में से अधिक शुद्ध, श्रेष्ठ और शान्त बन कर निकलता है और जीवन के पथ का सच्चा यात्री बनता है। प्राचार्यश्री तुलसी अपने उद्देश्य में सफल हों जिन्होंने अणुव्रत के रूप में व्यवहारिक जीवन का मार्ग बतलाया है। उनकी धवल जयन्तियाँ बार-बार पायें, यही मेरी कामना है।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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