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________________ अध्याय ] प्राचार्यश्री तुलसी के जीवन-प्रसंग [ २१५ तल्लीन थे। थोड़ी देर बाद जब उस चवन्नी की ओर ध्यान गया तो पूछा-यह किसने रख दी। पास मे बैठे भाइयों ने कहा-दर्शन करते समय किसी की जेब से गिर गई होगी। आचार्यश्री---यह गिरी हुई तो नहीं लगती, किसी-न-किसी ने भेंट रूप में रखी है, ऐसा लगता है । तत्रस्थ लोगों से पूछा गया तो सकुचाता हुआ वह बालक जिसका, नाम था 'उदा' सामने पाया और कहने लगा-महाराज ! यह तो इस सेवक की तुच्छ भेंट है। प्राचार्यश्री अरे भाई ! हम इस भेट वो कहाँ रखेगे । (अपने वस्त्रों की ओर इंगित करते हुए) हमारे न तो कही जेब है और न कोई अलमारी और न मठ है। बरगद में नया मोड़ सड़क के किनारे पर एक बरगद का पेड़ था। नीचे झुकी हुई जीर्ण जटाएं उसकी पुरानता की कथा स्पष्ट कह रही थीं, किन्तु उसके हरे-भरे और कोमल पत्ते इतने आकर्षक और नयनाभिराम थे कि प्राचार्यश्री के चरण वहीं पर रुक गये। ऊपर-नीचे देखा और पद यात्री मेवाड़ी भाइयों से कहने लगे-देखी आपने बरगद की चतुरता? कितना ममयज्ञ है यह ? वैशाख मास से पूर्व ही पुराने पत्तों को बिदाई दे दी और अब नया मोड लेकर नया वेष धारण किये पथिकों को मोह रहा है। इस बरगद मे प्रेरणा प्राप्त कर आप भी अपने जीवन को देखिये । पुरानता के मोह में कहीं पिछड़ तो नहीं रहे है ? सुदामा की भेट १५ जून, १९६० को प्राचार्यश्री अंटालिया से पुनः रिछेड पधार रहे थे। रास्ते में एक 'उदोजी' नामक वयोवृद्ध किमान नौजवान की तरह हृदय में खुशियों लिये आचार्यश्री के पैरों में लोट गया। उसके हाथ में गड़ की डली (कला) थी। उमने प्राचार्यथी के चरणों में उस गढ़ को भेट कर दिया। उस भेट को अस्वीकार करते हुए प्राचार्यश्री ने गड़ सम्बन्धी अनेक प्रश्न उसमे पूछे । परन्तु उस वृद्ध पटेल का हृदय विशुद्ध म एवं भक्ति-विभोर था। अाँख प्रानन्द के ग्रामों मे बडबाई प्रतीत हो रही थी। उस समय भगवान् महावीर और चन्दन बाला को घटना रह-रहकर हमें याद मा रही थी। उदोजी बोल नहीं सके। भक्ति ने कुछ करने के लिए बाध्य कर दिया। वृद्ध ने प्राचार्यश्री का जोर लगा कर हाथ पकड लिया। गड मुट्ठी में रखा और बन्द कर दिया। उधर में एक साथ में जयघोष मनाई दिया 'माज के प्रानन्द की जय हो।' मैने पीछे मे जिज्ञासा भाव मे पूछा--पटेल वासा ! यह क्या किया? उसने हाजिर जवाबी को लज्जित करते हा कहा-यह तो गरीव सुदामा के चावल की कृष्ण --तुलसीराम जी महाराज की भेंट थी। हनुमान का मूल्य प्राचार्य श्री प्रातः शौचार्थ गाँव वाहर जा रहे थे। पाश्व स्थित मन्दिर पर लगे लाउड स्पीकर में आवाज आई'भगवान हनुमानजी री कीमत छब्बीस रुपया। कुछ कदम पागे चले कि फिर मनाई दिया-'भगवान हनुमानजी गै कीमत मत्ताईस रुपया, तीम रुपया, अड़तीस रुपया बधे सो पावं।' प्राचार्यश्री ने अपने प्रवचन के बीच उक्त घटना का उल्लेख करते हुए कहा--कितना अन्धेर है। जिन देवता और भगवान् को मर्व शक्तिमान मानते हैं, उन्हें भी बोलियाँ बोल कर बेचा जाता है। विवाह और स्नान करवाया जाता है। यया भगवान भी मले हो जाते हे ? भगवान् की बिलनी विडम्बना कर रहे है, उनके ही भक्त । कबीर ने ठीक ही कहा है: कबीर कुबुद्धि मनाव की घट-घट माहि बड़ी। किस-किस को समझाइये, कुए भाग पड़ी।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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