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________________ अध्याय ] प्राचार्यश्रीजीवन- निर्माता [ १९७ मदुता बोलती और शासन मौन रहता। पर कालगणी के व्यक्तित्व के एक कोने में कठोरता भी छिपी थी। उनका मानस मृदु था, पर अनुशासन मृदु नहीं था। वे तेरापंथ को व्यक्ति देना चाहते थे। व्यक्ति-निर्माण अनशासन के बिना नहीं होता। इसलिए उनकी कठोरता मृदुता से अधिक फलवती थी। वे कोरे स्नेहिल ही होते तो दूसरों को केवल खींच पाते, बना नहीं पाते । वे कोरे कठोर होते तो न खीच पाते और न बना पाते। उनकी मृदुता कठोरता का चीवर पहने हा थी और उनकी कठोरता मदुता को समेटे हुए थी। इसीलिए वे बहुत रूखे होकर भी बहुत चिकने थे और बहुत चिकने होकर भी बहुत रूखे थे। जिन व्यक्तियों ने उनका स्निग्ध रूप देखा है, उन्होंने उनका रूखा रूप भी देखा है। ऐमे बिरले ही होंगे जिन्होंने उनका एक ही रूप देखा हो। वे कर्तव्य को व्यक्ति से ऊंचा मानते थे। उनकी दृष्टि में व्यक्ति की ऊँचाई कर्तव्य के समाचरण से ही फलित होती थी। मन्त्री मुनि मगनलालजी स्वामी उनके अभिन्न हृदय थे। बचपन के साथी थे। सुख-दुःख के समयोगी थे। फिर भी जहाँ कर्तव्य का प्रश्न था, वहाँ कर्तव्य ही प्रधान था, साथी नहीं । प्रतिक्रमण की वेला थी। मन्त्री मुनि गृहस्थों से बात करने लगे। कालगणी ने उलाहने की भाषा में कहा-"अभी प्रतिक्रमण का समय है, बातों का नहीं।" जो व्यक्ति कर्तव्य के सामने अपने अभिन्न हृदय की अपेक्षा नहीं रखता, वह दूसरों के लिए कितना कठोर हो सकता है, यह स्वयं कल्पनागम्य है। वे यदि धर्मप्राण नहीं होने तो उनकी कठोरता निर्ममता में बदल जाती। पर वे महान धर्मी थे। विस्मृति का वरदान उन्हें लब्ध था। भूल परिमार्जन पर वे इतने मृदु थे कि उनके साथ शत्रु-भाव रखने वाला भी उनका अपूर्व प्यार पाता था। कटोरता और कोमलता का विचित्र मंगम उम महान् व्यक्तित्व में था। वट के बीज को देखकर उनके विस्तार की कल्पना नहीं की जा सकती है, पर वह बीज से वाह्य नहीं होता। तेरापथ के विद्या-विस्तार के बीज कालगणी थे। विद्यार्जन के लिए काल की कोई मर्यादा नहीं होती। समूचा जोवन उमके लिए क्षेत्र है। कालगणी ने इसे प्रमाणित कर दिखाया। प्राचार्य बने, नब आपकी अवस्था नेतीस वर्ष की थी। उस समय आपने ढाई महीनों में ममग्र सिद्धान्त चन्द्रिका कण्ठस्थ की। ग्रानार्य हेमचन्द्रकृत अभिधान चिन्तामणि शब्दकोष आप पहले ही कण्ठस्थ कर चके थे। ग्रापन मंकल्प किया-मैं और मेरा माध-माध्वीगण संस्कृत व प्राकृत के पारगामी बने । आपने अपने जीवनकाल में ही उसे फलित होते देखा था। तेरापंथ की अधिकांश प्रतिभाएं उन्हीं के चरणों में पल्लवित हुई है। उनम स्पृहा पोर निस्ग्रहता का विचित्र योग था। विद्या के प्रति उनकी जितनी स्पृहा थी, उतनी ही बाह्य गम्बन्धों के प्रति उनकी निस्पृहना थी। दिए में दिया जलना है-इसमें बहुत बड़ी मच्चाई है। कालूगणो के पालोकिन पथ में प्राचार्य श्री तुलसी अपना पथ पालोकित करते है। उन्हीं की भाषा में--."मैं जब मुनता है कि कुछ लोगों की श्रद्धा हिल उठी, तब मुझ, यह वन स्मरण हो पाता है, जब कालगणी ने कुछ मंतों के सामने अपने भाव व्यक्त किये थे। उग समय थली (बीकानेर राज्य) म 'देशी विलायती' का संघर्ष चलता था। तब वहाँ दूमरी सम्प्रदाय के साधु आए। कुछ लोग उनके पास जाने लगे, उनकी अोर झके । तब कुछ मतों ने कालगणी के मामने निराशाजनक बात की। उनके उत्तर में प्राचार्यवर ने कहा, 'कोई किधर ही चला जाये, मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं। हमने दीक्षा किमी के ऊपर नहीं ली है, अपनी ग्रात्मा का सुधार करने के लिए ली है। मेरे तो स्वप्न में भी यह नहीं पाता कि अमुक श्रावक चला जायेगा नो हम क्या करेंगे? ग्राखिर थावकों मे हमें चद्दर के पैसे तो नहीं लेने है। श्रावक हमारे अनुयायी हैं, हम थावका के नहीं। माधो ! तुम्हें निश्चिन्त रहना चाहिए। मन में कोई भय नहीं लाना चाहिए।' न जाने कितनी बार ये बात मुझे स्मरण हो पाती हैं और इससे अपार प्रान्मबल बढ़ता है।" स्वावलम्बन उनके जीवन का व्रत था। वे आदि मे ही अपनी धन में रहे। न पद की लालमा थी और न कोई वस्तुओं के प्रति आकर्षण था। छटे प्राचार्य माणकगणी दिवंगत हो गए। वे अपना उत्तराधिकारी चन नही पाये थे । तेरापंथ के सामने एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गई। प्रत्येक साध इस स्थिति से चिन्तित था। जयचन्दजी नामक एक १. वि० सं० २००७ पौष सुदी ६
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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