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________________ १०४ भाचार्यमी तुलसी अभिनन्दन अन्य सहजतया हो जाती है। गांव चाहे छोटा हो या बड़ा, प्रवचन के समय स्थान पूर्ण न भरे, ऐसे अवसर कम ही पाते हैं। प्राचार्यश्री के शब्दों में "कहाँ से आ जाते हैं इतने लोग । न धूप की परवाह है और न वर्षा की। पता लगते ही पन्द्रहपन्द्रह मील से पैदल चले पाते हैं। कितनी श्रद्धा है इन ग्रामीणों में । मैं बहुत सुनता है कि आजकल लोगों में धार्मिक भावना नहीं रही, पर यह बात मैं कैसे मान लू कि यह बात सही है।" एक समय था जब कुछ पुराणपन्थियों ने कहा-स्त्री और शूद्र को धर्म-श्रवण का अधिकार नहीं। आचार्यश्री की दृष्टि में यह गलत है । धर्म पर किसी व्यक्ति या जाति विशेष की मुहर छाप नहीं है। वह तो जाति-पाति और वर्ग के भेदभावों से ऊपर उठा हमा है। क्या वृक्षों की छाया, चन्द्रमा की चांदनी और सरिता का शीतल जल सामान्य रूप से सभी के लिए उपयोगी नहीं होता? उसी तरह धर्म भी किसी कठघरे में क्यों बंधा रहे । जितना अधिकार एक महाजन को है, उतना ही अधिकार एक हरिजन को भी है। अभी-अभी मारवाड़ यात्रा के दौरान में प्राचार्यश्री 'सणया' नामक गाँव में थे। प्रवचन स्थल पर स्थानीय लोगों ने एक जाजम बिछाई। प्राचार्यप्रवर परीक्षार्थी साधु-साध्वियों को अध्ययन करवा रहे थे, अतः एक साधु ने प्रवचन भारम्भ किया। सभी वर्गों के लोग आ-पाकर जमने लगे। एक मेघवाल भाई भी पाया और उस जाजम पर बैठ गया। तथाकथित धार्मिकों को यह कैसे सह्य होता। वे उठे, अाँखें लाल करते हुए उस भाई के पास पहुंचे और बुरा-भला कहते हुए वहाँ से उठने के लिए उसे बाध्य करने लगे। इस हरकत से उस भाई की आँखों में आंसू आ गये । प्राचार्यप्रवर सामने से सारा दृश्य देख रहे थे। उनका कोमल हृदय पसीज उठा । अध्यापन में मन नहीं लगा । तत्काल प्रवचन स्थल पर पहुँचे और कहने लगे-भाइयो, यह क्या है ? एक व्यक्ति को अस्पृश्य मान कर उसका अपमान करना कहाँ तक उचित है। धर्मस्थान में इस प्रकार का अनुचित बर्ताव, यह तो साधुओं का अपमान है। यह कोई आपकी साज-सज्जा देखने नहीं आया है मपितु संतों का प्रवचन और आध्यात्मिक बातें सुनने के लिए आया है। उसे नहीं सुनने देना कितना बड़ा अपराध है ! एक स्थानीय पंच बोला-पर यह जाजम तो पागन्तुक भाइयों के लिए बिछाई थी। यह बैठा ही क्यों। इसे क्या अधिकार था? प्राचार्यश्री-किसने कहा तुम इसे बिछायो। यह आपको है, आप चाहे जिसे बिठाएं, किन्तु सार्वजनिक स्थान पर बिछा कर किसी व्यक्ति विशेष को जातीयता के आधार पर वंचित करना, शान्ति से बैठे हुए को अनुचित तरीके से उठाना, बिल्कुल गलत है। यहाँ मापके पंचायत भी तो होगी? उसमें जितने पंच हैं, क्या सारे महाजन ही हैं ? पंच-नहीं, एक हरिजन भी है। माचार्यश्री-तो क्या पंचायत के समय उसके बैठने की अलग व्यवस्था होती है? पंच-नहीं महाराज! वहाँ तो सभी साथ में ही बैठते हैं । प्राचार्यश्री-तो फिर इस बेचारे ने आपका क्या बिगाड़ा है। इसके साथ इतना भेदभाव क्यों? याद रखो, यह धर्म-स्थान है। इस प्रकार प्राचार्यश्री ने अनेक तर्क-वितकों से अस्पृश्यता की प्रोट में होने वाली घणा की भावना को दूर करने पर बल दिया। प्रवचन समाप्ति पर घटना से सम्बन्धित व्यक्ति आये और इस बात के लिए माफी मांगने लगे। वह मेघवाल भाई तो गद्गद् हो रहा था। मैं निहाल हो गया बहुधा सुना जाता है कि आजकल लोगों पर धार्मिक उपदेशों का असर नहीं होता। ठीक है,हो भी कैसे जब तक उपदेश के पीछे वक्ता का जीवन न बोले । यस्ता में अगर प्रास्था हो तो श्रोता का जीवन तो पल भर में बदल जाये । क्या दयाराम की घटना इस तथ्य को अभिव्यक्त नहीं करती। दयाराम की उम्र साठ वर्ष से ऊपर होगी। पर अब भी पतिपत्नी मिलकर हाथों से एक कुआं खोदने में व्यस्त हैं। लम्बा कद, गठीला बबन, बड़ी-बड़ी डरावनी पोखें व बिखरे हुए बाल देखकर हरेक व्यक्ति तो उसे बतलाने का भी सम्भवतः साहस न करे। वह अपने जीवन में अनेक लोगों की तिजोरियां
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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