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________________ अध्याय परम सापक सुनतीची [ ११ होता। हमने देखा है कि उनसे चर्चा करने के लिए पाने वालों में कई बहुत उत्तेजित होकर ऐसी बातें भी कह बैठते हैं जो सहसा सभ्य और संस्कारी व्यक्ति के मुंह से नहीं निकल सकतीं, फिर भी वे गरम नहीं होते, उन्हें उत्तेजित होते हमने नहीं देखा। यह शान्ति साधना द्वारा प्राप्त है या विखावा? हमारी यह हिम्मत नहीं कि हम उसे दिखावा कहें। रही प्रतिष्ठा या बड़प्पन की भूख की बात, सो इस विषय में कई पच्छे लोगों के मन में गलतफहमी है कि उनके शिष्य बड़े-बड़े लोगों को लाकर उनका इतना अधिक प्रचार क्यों करते हैं? क्या यह बात प्रात्म-विकास में लगे हुए साधक के लिए उचित है ? इस प्रश्न का उत्तर देना आसान नहीं है। माज विज्ञापन का युग है। अच्छी बात भी बिना प्रचार के मागे नहीं बढ़ती। यदि अपनी अच्छी प्रवृत्तियों या प्रान्दोलन के प्रचार के हेतु यह सब किया जाता हो तो क्या उमे अयोग्य या त्याज्य माना जा सकता है ? प्रतिष्ठा का मोह ऐसा है, जिसका त्याग करता हुमा दिखने वाला कई बार उसका त्याग उससे अधिक पाने की आशा से करता है। दूसरे पर प्राक्षेप करते समय हम अपना प्रात्म-निरीक्षण करें, तो पता लगेगा कि हमारी कहनी और करनी में कितना अन्तर है । हमें कई बार अपने-आपको समझने में कठिनाई होती है । लोकषणा को त्यागने का प्रयत्न करने वाले ही जानते हैं कि ज्यों-ज्यों बाह्य त्याग का प्रयत्न होता है,त्यों-त्यों वह अन्तर में जड़ जमाता है। यह बात अपना मानसिक विश्लेषण,प्रपनी वृत्तियों का निरीक्षण-परीक्षण करने वाला ही जानता है। कई बार त्याग किये हुए ऐसा दिखाई देने वाले के हृदय में भी उसकी कामना होती है तो कई बार बाहर से दी हुई प्रतिष्ठा का भी जिसके हृदय पर असर न हुआ हो ऐसे साधक भी पाये जाते हैं । इसलिए तुलसीजी के हृदय में प्रतिष्ठा का मोह है या धर्म-प्रसार की चाह, इसका निर्णय हम जैसों को करना कठिन है, इसलिए इस बात को उन्हीं पर छोड़ दे, यही श्रेष्ठ है। कर्मठ जीवन उन्होंने जो धवल समारोह के निमित्त से वक्तव्य दिया, वह हमने देखा। वह भाषा दिखावे को नहीं लगती, हृदय के उद्गार लगते हैं। हमारी जब-जब बात हुई, हमने जो चर्चा की, वह प्रान्तरिक और साधना से सम्बन्धित ही रही है। हाँ, कुछ समाज से सम्बन्धित होने से सामाजिक चर्चा भी हुई, पर अधिकांश मे साधना सम्बन्धित होती रही है । इसलिए हम उन्हें 'परम साधक' मानते पाये हैं और कोई अब तक ऐसा प्रसंग उपस्थित नहीं हुआ कि हमें अपने मत को बदलना पड़ा हो। हमें उनमें कई गुणों के दर्शन हुए। ऐसी मंगठन-चातुरी, गगग्राहकता, जिज्ञासावृत्ति, परिश्रमशीलता, प्रध्यवसाय व शान्ति बहुत कम लोगों में पाई। हमने प्रत्यक्ष में उन्हें बारह-बारह, चौदह-चौदह घण्टे परिश्रम करते देखा है। कई बार हमने उनके भक्तों से कहा कि इस प्रकार वे उन पर अत्याचार न करें। वे सबेरे चार बजे उठ कर रात को ग्यारह बजे तक बराबर काम करते हैं, लोगों से चर्चा या वार्ता होती रहती है। हमने देखा न तो दिन को वे पाराम करते हैं और न अपने साधुओं को करने देते हैं । ध्यान, चिन्तन, अध्ययन, व्याख्यान, चर्चा चलती ही रहती है। फिर जैन साधुयों की चर्या ऐसी होती है जिसमें स्वावलम्बन ही अधिक रहता है। सभी धार्मिक क्रियाएं चलती रहती हैं। इतने परिश्रम के बाद भी सन्तुलन न खोना कोई प्रासान बात नहीं है। कोई उनके साथ दो-चार रोज रहकर देखे तभी पता चल सकेगा कि वे कितने परिश्रमी है और यह बिना साधना के संभव नहीं है। उन्होंने अपने साधुओं तथा साध्वियों को पठन-पाठन, अध्ययन तथा लेखन में निपण बनाने में काफी परिथम और प्रयल किये। उनके साधु केवल अपमे सम्प्रदाय या धर्म ग्रन्थों या तत्त्वों से ही परिचित नहीं, पर सभी धर्मों और वादों से परिचित हैं। उन्होंने कई अच्छे व्याख्याता, लेखक, कवि, कलाकार तथा विद्वानों का निर्माण किया है। केवल साधुनों को ही नहीं, श्रावक तथा धाविकानों को भी प्रेरणा देकर आगे बढ़ाया है। प्राचार्य का कार्य राजस्थान और राजस्थान में भी थली जैसा प्रदेश, ऐसा समझा जाता है, जहां पुराने रीति-रिवाज और रूढ़ियों का ही प्राबल्य है । उस राजस्थान में पर्दा तथा सामाजिक रीति-रिवाजों को बदलने की प्रेरणा देना सामान्य बात नहीं है, पर
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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