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________________ अन्याय ] वित्तीय संत तुलसी बनता है। मानन्द गाथापति भगवान महावीर से प्रार्थना करता है-'भगवन् ! आपके पास बहुत सारे व्यक्ति निर्ग्रन्थ बनते हैं, किन्तु मुझमें ऐसी शक्ति नहीं कि मैं निर्ग्रन्थ बनूं। इसलिए मैं आपके पास पाँच अणुव्रत और मात शिक्षावत; द्वादश व्रतरूप गृही धर्म स्वीकार करूँगा।' यहाँ वाक्ति का अर्थ है विरक्ति। संसार के प्रति, पदार्थों के प्रति, भोग-उपभोग के प्रति जिसमें विरक्ति का प्राबल्य होता है, वह निर्ग्रन्थ बन सकता है । अहिंसा और अपरिग्रह का व्रत उसका जीवन-धर्म बन जाता है। यह वस्तु सबके लिए सम्भव नहीं । व्रत का अणु-रूप मध्यम मार्ग है। अव्रती जीवन शोषण और हिमा का प्रतीक होता है और महाव्रती जीवन दुःशक्य । इस दशा में प्रणुवती जीवन का विकल्प ही शेष रहता है। प्रणवत का विधान व्रतों का समीकरण या संयम और असंयम, सत्य और अमत्य, अहिंसा और हिंसा, अपरिग्रह और परिग्रह का मिश्रण नहीं, अपितु जीवन की न्यूनतम मर्यादा का स्वीकरण है। चारित्रिक प्रान्दोलन अणुवत-आन्दोलन मूलतः नारित्रिक आन्दोलन है। नैतिकता और सत्याचरण ही इसके मूलमंत्र है। आत्म-विवेचन और प्रात्म-परीक्षण इसके साधन हैं। प्राचार्यश्री तुलसी के अनुसार यह प्रान्दोलन किसी सम्प्रदाय या धर्म-विशेप के लिए नहीं है। यह तो सबके लिए और सार्वजनीन है। अणुव्रत जीवन की वह न्यूनतम मर्यादा है जो सभी के लिए ग्राह्य एवं शक्य है । चाहे अात्मवादी हों या अनात्मवादी, बड़े धर्मज्ञ हों या मामान्य सदाचारी, जीवन की न्यूनतम मर्यादा के बिना जीवन का निर्वाह सम्भव नहीं है। अनात्मवादी पूर्ण अहिमा में विश्वास न भी करें, किन्तु हिसा अच्छी है, ऐसा तो नहीं कहते । राजनीति या कटनीति को अनिवार्य मानने वाले भी यह तो नहीं नाहते कि उनकी पत्नियाँ उनसे छलनापूर्ण व्यवहार करे। प्रमत्य और अप्रामाणिकता बरतने वाले भी दूसरों से सच्चाई और प्रामाणिकता की प्राशा करते है। बुराई मानय की दुलर्बता है, उसकी स्थिति नहीं । कल्याण ही जीवन का चरम सत्य है जिसकी साधना वत (प्राचरण) है । अणव्रत-पान्दोलन उमी की भमिका है। अणुव्रत-विभाग प्रणवत पांच हैं-हिसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य या स्वदार मंतोष और अपरिग्रह या इच्छा-परिमाण । १. पहिसा-पहिसा-अण्वत का तात्पर्य है-अनर्थ हिंसा से अनावश्यकता शून्य केवल प्रमाद या अज्ञानजनित हिमा में बचना। हिमा केवल कायिक ही नहीं, मानसिक भी होती है और वह अधिक घातक सिद्ध होती है। मानसिक हिंसा में सभी प्रकार के शोषणों का समावेश हो जाता है और इसीलिए अहिंसा में छोटे-बड़े अपने-बिराने, स्पृश्य-अस्पृश्य प्रादि विभेदों की परिकल्पना का निषेध अपेक्षित होता है। २. सत्य-जीवन की सभी स्थितियों में नौकरी, व्यापार, घरेल या राज्य अथवा समाज के प्रति व्यवहार में सत्य का आचरण अणुवती की मुख्य साधना होती है। ३.प्रचौर्य-लोभाविले प्रायया प्रवत्तम् (जैन) लोके प्रदिन्नं नादियति तमहंमि बाह्मणं (बौद्ध) अचौर्य में मेरी निष्ठा है। चोरी को मैं त्याज्य मानता हूँ। गृहस्थ-जीवन में सम्पूर्ण चोरी से बचना सम्भव न मानते हए अणवती प्रतिज्ञा करता है-१. मैं दूसरों की वस्तु को चोर-वृत्ति से नहीं लूंगा, २. जानबूझकर चोरी की वस्तु नहीं खरीदंगा और न चोरी में सहायक बनंगा, ३. राज्यनिषिद्ध वस्तु का व्यापार ब पायात-निर्यात नहीं करूंगा, ४. व्यापार में प्रप्रमाणिकता नहीं बरतूंगा। ४. ब्रह्मचर्य-१. तवेसु वा उत्तम बभधेरं (जैन), २. माते कामगुणे रमस्सु चित्तं (बौद्ध) ३. ब्रह्म वर्षे ग १ मो खलु महंतहा संचाएनिमुणेजाव पब्वइतए। महणं देवाणुप्पियाणं मन्तिए पंचाणुगइयं सतसिल्वावइयं हादस विहं मिहिधम्म परिवज्जिस्सामि-उपासकवशांग ॥१॥
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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