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________________ १६६ ] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य इसलिए उसकी दृष्टि में उस (देवत्य) का कोई मूल्य भी नहीं। प्राचार्यश्री एक मानब हैं। इसलिए उनका अंकन भी उनके अपने व्यक्तित्व से करना अधिक समुचित होगा। वे मानव हैं, इसलिए सभी मानव विवशताएं भी उनमें उसी रूप में विद्यमान हैं, जिस रूप में प्रत्येक सामान्य जीवन के समक्ष आती रहती है । फिर भी उनका व्यक्तित्व अन्य से विशिष्ट इसलिए है कि उन्होंने सामान्य की भूमिका पार कर विवशताओं को परास्त ही नहीं किया, किन्तु उसे सहयोगी गुणों के रूप में परिवर्तित भी कर दिया। तिमिर को मिटाना उनके जीवन का लक्ष्य नहीं, किन्तु उसको आलोक में परिवर्तित कर देना, यही उनका आत्म-घोष रहा है। विरोधी के साथ भी मित्रता का व्यवहार करना पहिसा का विकास है । किन्तु अहिंसा की पराकाष्टा वह है, जहाँ शत्रु नाम की कोई चीज रह ही न जाये, सब कुछ मित्र में परिणत हो जाये। व्यक्ति की प्रत्येक प्रवृत्ति अपने आस-पास के वातावरण की अनुकूलता पाकर फले-फूले यह स्वयं एक निष्क्रियता है। सक्रियता वह है, जहाँ व्यक्ति जीवन भर स्थूल दृष्टि से निष्क्रिय रह कर भी गतिशीलता के लिए जूझता रहे । गतिशीलता कभी भी वातावरण की अनुकूलता सहन नहीं कर सकती। प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपना धैर्य न खोये यह व्यक्ति की महत्ता का परिचायक है, किन्तु व्यक्ति की महत्ता वहाँ दुगनी हो जाती है, जब कि वह पथ में पाने वाले प्रत्येक रोड़ों को भी लक्ष्य का महत्त्व समझा कर उसमें गति-प्रेरकता भर दे । इसमें प्राचार्यश्री सिद्धहस्त हैं। वे चलते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति में भी चलते रहे है, किन्तु अकेले ही नहीं, समूह को साथ लेकर चलते है। वे प्रत्येक व्यक्ति को महत्त्व देते हैं और उसकी योग्यता का अंकन भी करते हैं। उनकी गति का क्रम भी यही है कि जो गति से अनजान हैं, उन्हें गति का भान कराना; जो जानते हैं, किन्तु फिर भी प्रमादवश रुद्ध हैं, उन्हें प्रेरणा देना और गति करने वालों को निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिए समुचित अवकाश देना । योग्यता का मूल्यांकन जहाँ नहीं होता, वहाँ नई प्रतिभाएं तो विकसित हो ही नहीं सकती। किन्तु विकसित प्रतिभाएं भी मुरझा जाती है; अतः उसका समुचित रूप से नियोजन करना गतिमत्ता के लिए मत्यन्त आवश्यक होता है । कुशल मनुशासक माचार्यश्री एक कुशल अनुशासक हैं। अनुशास्ता बनना सहज है, किन्तु उसमें कुशलता निखर पाये, यह अनुशासन की सफलता है। शासक शासितों के साथ घुल-मिल जाये, यह कुशलता की कसौटी है। उस पर खरा उतरने वाला ही संघ को विकास व विस्तार दे सकता है। क्योंकि वहाँ अनुशासकत्व भी त्याग और बलिदान की परिधि में रह कर अपना कार्य साधता है। प्राज जहाँ अनुशासन करने की व्यक्ति-व्यक्ति में भूख लगी है, वहाँ उसके दायित्व को समझने का प्रयास कहाँ है ? आचार्यश्री ने एक बार अपने प्रवचन में कहा-'अनुशासक बनने की अपेक्षा अनुशासन का पालन करना अधिक सहज होता है। अनुशासन-पालन में व्यक्ति को केवल अपनी ही चिन्ता होती है, किन्तु अनूशासकत्व में न जाने कितने अनजानों की भी चिन्ता रखनी पड़ती है। अनुशासकत्व का दायित्व क्या लेना है, मानो काँटों का ताज धारण करना है।' किन्तु इस गुरुतर भार का महत्त्व तभी है, जब अनुशासक उसके दायित्व को समझे। वस्तु सत्य हमें बताता है कि अनुशासन करना एक पृथक कर्म है और उसके दायित्व को समझना एक पृथक् कर्म । दायित्व के प्रभाव में ही अनुशासन लड़खड़ाता है, अन्यथा अनुशासन में उच्छृखलता पनप ही नहीं सकती। वर्तमान राज्यतंत्र विकास नहीं पा रहा है, समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त है और कह देना चाहिए कि बीते हुए 'कल' के माप-दण्ड 'पाज' के समक्ष लड़खड़ा रहे हैं और पाने वाले 'कल' के समक्ष 'माज' । ऐसा क्यों है ? इसलिए कि दायित्व का अंकन नहीं हो रहा है। अनुशासकत्व अनुशासन को विवेक देता है कि वह अपना कर्तव्य समझे। किन्तु उसके साथ ही यह प्रश्न भी उभरता है कि उसका अपना भी कोई दायित्व होता होगा? जहाँ यह चिन्तन नहीं होता, वहीं शासन क्रान्ति का रूप लेता है। तेरापंथ शासन एकतंत्रीय परम्परा पर आधारित है, इसलिए यह अधिक अपेक्षित होता है कि उसका शास्ता योग्यता सम्पन्न हो । संघ के प्रत्येक व्यक्ति को नियन्ता के रूप में वह तभी स्वीकार्य हो सकता है जबकि शास्ता के प्रति प्रत्येक हृदय समान रूप से श्रद्धा और समर्पण से प्रन्वित हो और श्रद्धा व समर्पण को शास्ता तभी प्राप्त कर सकता है जब कि उसके समस्त व्यवहार एक इस प्रकार की कसौटी पर कसे हों, जो सर्वमान्य हैं। प्रजातंत्र में इसके लिए सम्भवतः
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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