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________________ एक अनोखा व्यक्तित्व मुनिश्री धनराजजी मेरे दीक्षक, शिक्षक व गुरु होने के कारण मैं उन्हें असाधारण प्रतिभा सम्पन्न, साहित्य जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र, अमित प्रात्मबली, कुशल अनुशासक व अनुत्तर भाचार-निधि आदि उपमानों से अलंकृत करूं, ऐसी बात नहीं है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की शीतलता और जलधि का गाम्भीर्य प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं, उसी प्रकार महापुरुषों के व्यक्तित्व को निखारने की आवश्यकता नहीं होती; वह स्वतः निरित होता है । महापुरुष जिस ओर चरण बड़ाते हैं, वही मार्ग; जो कहते हैं, वही शास्त्र और जो कुछ करते हैं, वही कर्तव्य बन जाता है। महापुरुष तीन कोटि के माने गये हैं, १. जन्मजात, २. श्रम व योग्यता के बल पर और ३. कृत्रिम, जिन पर महानता थोपी जाती है। प्राचार्यश्री तुलसी को जन्मजात महापुरुष कहने में कोई आपत्ति नहीं, किन्तु तो भी श्रम और योग्यता से बने इस स्वीकरण में भी दो मत नहीं होंगे। कर-ककण को दर्पण की नरह ही प्रत्यक्ष को प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। इतिहास कहता है-पूर्वजात महापुरुषों का अमर व्यक्तित्व स्वतः धरा के कण में चमत्कृत हुआ है तो फिर वर्तमान में हो तो पादचर्य व नवीनता क्या हो सकती है ? आचार्यश्री तुलसी के व्यक्तित्व का अरुण आलोक मजदूर की झोंपड़ो से लेकर गष्ट्रपति भवन तक फैल चका है; इसकी अनुभूत यथार्थता को स्पष्ट करके ही मैं आगे लिखना चाहूँगा। घटना जुलाई सन् १९५६ की है। राजस्थान की राजधानी जयपुर की यातायात संकुल मिर्जा इस्माइल रोड स्थित दूगड़ बिल्डिंग की दूसरी मंजिल में मैं ठहरा हुआ था। एक युवक पारिवारिक कलह से ऊब कर मेरे पास आया। कहने लगा मुझे मंगल पाठ सुनायो । मैंने सुना दिया। वह उसी समय वहाँ मे नीचे सड़क पर कूद पड़ा। मैं अवाक रह गया। उसके चोट भी लगी। जोरों से चिल्लाने लगा। मैकड़ों लाग इकट्ठे हो गये। वातावरण कुछ कलुषित हो गया। उसे थाने में ले जाया गया। वहाँ उसने कह दिया-उस मकान में तीन साधु भी ठहरे हुए हैं। उन्होंने किसी के कहने से निष्कारण ही मुझे पकड़ कर नीचे गिरा दिया। थानेदार ने पूछा-वे साधु कौन हैं ? उसने कहा-प्राचार्यश्री तुलसी के शिष्य तेरापंथी साधु हैं । थानेदार प्राचार्यश्री के सम्पर्क में पा चुका था। उसने कहा-तुम झूठ बोलते हो । प्राचार्य तुलसी व उनके शिष्य ऐसा काम कभी नहीं कर सकते। मैं उनमे अच्छी तरह परिचित हूँ। आखिर दो-चार इण्डे लगने पर यवक ने सच्ची घटना रख दी और कहा मैं स्वयं ही नीचे गिरा था। साधुओं का कोई दोष नहीं। मैंने बहकावे में पाकर झूठ ही उनका नाम लिया है। प्रस्तु! यह है आपके बहुमुखी व्यक्तित्व की परिचायिका एक छोटी-सी घटना। अाज पापका व्यक्तित्व एक राष्ट्रीय परिधि में सीमित न रहकर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। बम्बई में श्री वेरन प्रादि कतिपय अमेरिकनों ने प्राचार्यश्री से कहा--"हम अापके माध्यम से अणवतों का प्रचार अपने देश में करना चाहते हैं, क्योंकि वहाँ इनकी आवश्यकता है।" सन् १९५४ में जापान में हुए सर्व धर्म सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने यह निश्चय किया कि अणवतों का प्रचार यहाँ भी होना चाहिए। द्वितीय महायुद्ध की लपटों से झुलसे हुए संसार को 'प्रशान्त विश्व को शान्ति का सन्देश' नाम से प्रापने एक सन्देश दिया, जिस पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी ने लिखा, "क्या ही अच्छा होता, दुनिया इम महापुरुष
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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