SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३५ अध्याय 1 तुलसी पापा ले 'परवति' का नब सम्मेश यह अनाचार की प्राज रहा दीवार तोड जागरण के लिए नीति-भीति को रहा जोड़ प्रज्ञान तिमिर को चीर, ज्ञान का भर प्रकाश कर रहा प्राज वह मानव का अन्तर्विकास । करता न कभी प्रामर्ष-कलह की एक बात या धर्मभेद को इसके सम्मुख क्या विसात ? बस एक लक्ष्य इसका-'जीवन मंगलमय हो अन्याय-अनय प्रौ' कल्मषका क्षण में लय हो ।' हो गये प्राज तुम हो अतिशय आचरण-भ्रष्ट कर रहे आज तुम स्वयं प्रात्म-बल को विनष्ट ; अपनी आँखें खोलो, यदि तुम कुछ सको देख तो देखो अपने धर्मदूत की ज्योति-रेख । व्रत करते हैं कुछ लोग स्वार्थ की सिद्धि-हेतु व्रत करते हैं कुछ लोग, बनाने स्वर्ग-सेतु ; लेकिन यह 'अणुव्रत' कैसा जिसमें नहीं स्वार्थ निष्काम कर्म यह है नैतिकता प्रचारार्थ ।
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy