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________________ अध्याय ] प्रथम दर्शन और उसके बाद [ ११५ प्राशाजनक जो प्रासार दीख पड़ते हैं, उनमें उल्लेखनीय है--प्राचार्यश्री के साधु-संघ का अाधुनिकीकरण । मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि साधु-संघ के अनुशासन, व्यवस्था अथवा मर्यादानों में कुछ अन्तर कर दिया गया है। वे तो मेरी दृष्टि में और भी अधिक दृढ़ हुई हैं। उनकी दृढ़ता के विना तो सारा ही खेल बिगड़ सकता है। इसलिए शिथिलता की तो मैं कल्पना तक नहीं कर सकता। मेरा अभिप्राय यह है कि प्राचार्यश्री के साधु-मंघ में अपेक्षाकृत अन्य साधु संघों के सार्वजनिक भावना का अत्यधिक मात्रा में संचार हुआ है और उसकी प्रवृत्तियों प्रत्यधिक मात्रा में राष्ट्रोन्मुखी बनी हैं । प्राचार्यश्री ने जो घोषणा पहली बार दिल्ली पधारने पर की थी, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई है। उन्होंने अपने साधु संघ को जन-सेवा तथा राष्ट्र-सेवा के लिए अर्पित कर दिया है। एक ही उदाहरण पर्याप्त होना चाहिए। वह यह कि जितने जनोपयोगी साहित्य का निर्माण पिछले दम-ग्यारह वर्षों में प्राचार्यश्री के साधु-संघ द्वारा किया गया है और जनजागृति तथा नैतिक चरित्र निर्माण के लिए जितना प्रचार-कार्य हुआ है, वह प्रमाण है इस बात का कि ममय की मांग को पूरा करने में प्राचार्यश्री के माध-संघ ने अभूतपूर्व कार्य कर दिखाया है और देश के समस्त साधुनों के सम्मुख लोकमेवा तथा जन-जागति के लिए एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर दिया है। युग की पुकार सुनने वाली संस्थाएं ही अपने अस्तित्व को सार्थक सिद्ध कर सकती हैं। इसमें तनिक भी मन्देह नहीं कि प्राचार्य श्री के तेरापंथ साध-संघ ने अपने अस्तित्व को पूरी तरह मफल एवं मार्थक सिद्ध कर दिया है। तुभ्यं नमः श्रीतुलसीमुनीश ! प्राशुकविरत्न पण्डित रघुनन्दन शर्मा, प्रायुर्वेदाचार्य अणुव्रतैः गान्तिनितान्तशीले रस्त्र रमोघः कलहं विजेतुम् । त्वं भारतोया॑ कुरष विहारं, तुभ्यं नम: श्रीतुलसीमनीश ॥१॥ त्वं लोकबन्धोः सदृशो विभासि, लोकान्धकारस्य विनाशनाय । पापाधमैधांसि विदग्धुमर्हः, प्राजैः प्रतीतोऽस्यकश: कृशानुः ॥२।। चिन्ताग्निना प्रज्वलिताङ्गभाजां, शान्तं मुगीत हृदयं करोषि । दोपैरशेप रहितं ब्रुवन्नि, विदांवरा स्त्वामशशं शशाङ्कम् ।।३।। रनोपमानि प्रवरव्रतानि, दीनाय दारिद्रय-हताय दत्से । विद्वद्वरा स्त्वां मधुरं वदन्तमक्षारतोयं जलधि विदन्ति ।।४।। अहिंसया निहत लोकदुःखं, सद् ब्रह्मचर्यव्रतभूपिताङ्गम्।। प्रपत्रभार्य विजहद गहं त्वां, मन्यामहे गान्धिमगाधबद्धिम ॥५॥ अशेषशब्दाम्बुधिपारयातं, सारस्वताः संप्रति सन्दिहन्ति । त्वं पाणिनि वा तुलसीमुनि वा, दाक्षी' सुतं वा वदना सुतं वा ।।६।। साधू स्त्वदीयान् सम भोज्यवस्त्रान्, एक क्रिया नेक गुरौ निबद्धान् । वीक्ष्य प्रवीणा इह निर्णयन्ति, न साम्यवादं न समाजवादम् ।।७।। गोतामपि त्वां परितः पठन्तं, जैनागमान् पूर्णतया रटन्तम् । शौद्धोदने ग्रन्यवरान् भणन्तं, स्व-स्वं विदुर्वैदिकजैनबौद्धाः ।।८।। १वाक्षी, पाणिनिमाता २ वदना, तुलसी माता
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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