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________________ १०८] प्राचार्यश्री तुलसीपभिनन्दन अन्य इस चिरन्तम इव को मो है कहानी, कथा मान-साधना की बह पुरानी। सत्य अन्तर्बाह्य सम प्रविराम प्रविजित, स्वर्ण से संघर्ष करता है प्रकम्पित । स्वर्ण के जो बास बे हैं हाय उसके, सत्य के नि:स्वार्थ साथी साथ उसके । जो न इसके, समर्थक उसके बने हैं, ___ मार्ग दो ही मानधों के सामने हैं । तीसरा दल विश्व में कोई नहीं है, सत्य ने प्राशा कभी खोई नहीं है। प्रश्न यह इतिहास का सबसे सतत है 'कौन किसके साथ इस रण में निरत है ?' श्रेय प्रौर प्रेय से उपलब्धि सब धर्मों के सार अथवा अपरिवर्तनीय मूल तत्त्व का संक्षेप में उल्लेख करना सरल नहीं है, तथापि प्रस्तुत संदर्भ में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि यह है आध्यात्मिकता-अथवा शान्ति या सुख की खोज बाहर न करके अन्दर करना । यही श्रेय मार्ग है, जिसे उपनिषदों ने प्रेय मार्ग से भिन्न बताया और कहा कि श्रेय मार्ग ग्रहण करने से कल्याण होता है, परन्तु प्रय मार्ग ग्रहण करने से ऐसा हीयतेऽर्थः' प्रयोजन ही विफल हो जाता है। इस श्रेय मार्ग का आनन्द त्याग के द्वारा मिलता है, भोग के द्वारा नहीं; अतएव यह प्रानन्द वास्तविक, पूर्ण तथा शाश्वत होता है। भोग द्वारा प्राप्त सुख मिथ्या, अपूर्ण तथा अनित्य होता है, इसलिए यदि राख ही अभीष्ट हो तो विषयेन्द्रिय-संयोग-जन्य विपाक्न सुख के स्थान पर प्रतीन्द्रिय सुख का आनन्द लेना मनुष्य को शोभा देता है। श्रीमद्भगवद्गीता मे भगवान् कहते है"मैं ही ब्रह्मा की प्रतिष्ठा हूँ, मैं ही अव्यय अमृत की, शाश्वत धर्म की, तथा एकान्तिक मुख की प्रतिष्ठा हूँ।" अर्थात् चाहे अमतत्व के लिए साधना हो, चाहे धर्म के अथवा सुख के लिए, हमारी दृष्टि यह होनी चाहिए कि जिस अमृत की हम चाह करते हैं, वह मव्यय हो; जिस धर्म में हमारी निष्ठा है, वह शाश्वत (अपरिवर्तनशील)धर्म हो, जिम मुग्व की हम खोज करें, वह एकान्तिक हो ऐसा न हो कि वह दुःख में परिणत हो जाये। उपयुक्त प्रकार से जीवन की दिशा निश्चित हो जाने पर यह कहा जा सकेगा कि सम्यग् व्यवसितो हि सः यह दिशा ठीक स्थिर हुई। इसके पश्चात् लक्ष्य की ओर बढ़ने की बात आती है। यह प्रगति हमारे दैनिक माचरण, व्यवहार व अभ्यास पर निर्भर है। इस क्षेत्र में हमें भाचार्यो, संतों और महापुरुषों की जीवन-चर्या से बड़ी प्रेरणा तथा मार्ग-दर्शन मिलते हैं। साधना-पथ की ओर उन्मुख व्यक्ति के पैर पथ की विकटता के वर्णनों से डगमगाते हैंजैसे कि भुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पपस्तत् कवयो वदन्ति; Strait is the gate and narrow the path; अथवा कभी-कभी इस भय से कि कहीं बह उभयतः विभ्रष्ट न हो जाये-माया मिली न राम। गरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकूर ने 'गीतांजलि' के एक गीत में इस दुविधा का एक सुन्दर चित्र खींचा है : मेरे बन्धन बड़े जटिल है, किन्तु जब मैं उन्हें तोड़ने का प्रयत्न करता है तो मेरा दिल दुखने लगता है। मेरा विश्वास है कितुझमें अमूल्य निषि है और
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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