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________________ अध्याय ] मानवता के पोषक, प्रचारक उम्नायक नहीं समझा । स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा है, "धर्म प्राह्मणों का है, बनियों का है; शूद्रों का नहीं, यह भ्रान्ति है। धर्म का द्वार सबके लिए खुला है।" वे धर्म को सत्य की खोज, अपने स्वरूप की खोज, मानते हैं। जो सत्य का खोजी है, जो अपने को जानना चाहता है, उसके लिए न तो कोई बड़ा है, न छोटा । यही नहीं, वे मानव के एकीकरण मे विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि समानता और समन्वय के तत्वों को ही देखती है; विषमता और विशृंखलता के तत्त्वों को नहीं। उन्होंने बार-बार कहा है, "धर्म-सम्प्रदायों में समन्वय के तत्त्व अधिक है। विरोधी तत्त्व कम।" इसीलिए उनके प्रणवत-प्रान्दोलन में प्रजन तो हैं ही, हिन्दू धर्म के बाहर के लोग भी हैं। सब विरोधों, विसंगतियों और मतभेदों के बावजूद ये सब तय्य क्या यह प्रमाणित नहीं करते कि प्राचार्यश्री तुलसी गणी का जीवन-लक्ष्य विराट और अखण्ड मानवता का कल्याण है, लघु और खण्डित मानवता का नहीं और उनका यह विश्वास शाब्दिक भी नहीं है, क्रियाशील है। तभी यह प्रणवत-आन्दोलन है। तभी उनका बल प्राचार पर अधिक है। क्योंकि व्यास भगवान के शब्दों में 'प्राचार ही धर्म है' और बीसवीं सदी में प्राचारही मानवता है। प्राचार्यश्री तुलसी इसी मानवता के पोषक, प्रचारक और उन्नायक हैं। AINOR 14
SR No.010719
Book TitleAacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
PublisherAcharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti
Publication Year
Total Pages303
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Literature, M000, & M015
File Size15 MB
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