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________________ ४४ 'पालपूजन, शासनदेवतापूजन, सकलीकरणविधान और प्रतिमाके चंदनचर्चन आदि कई बातोंका निषेध किया गया है, जलको अपवित्र वतलाया गया है, खड़े होकर पूजनका विधान किया गया है; इत्यादि कारणोंसे ही शायद हलायुधजीने इन ग्रंथोंको अप्रमाण और आगमविरुद्ध ठहराया है। अस्तु इन ग्रंथोंकी प्रमाणता या अप्रमाणताका विषय यहाँ विवेचनीय न होनेसे, इस विषयमें कुछ न लिखकर मैं यह बतला देना जरूरी समझता हूँ कि हलायुधजीके इस कथन और उल्लेखसे यह बात बिलकुल हल हो जाती है और इसमें कोई सदेह वाकी नहीं रहता कि आपकी यह टीका 'रत्नकरडश्रावकाचार ' की (पं० सदासुखजीकृत) भापावचनिका तथा 'विद्वज्जनवोधक' की रचनाके पीछे बनी है। तभी उसमें इन ग्रंथोंका उल्लेख किया गया है। पं० 'सदासुखजीने रत्नकरंडश्रावकाचारकी उक्त भाषावचनिका विक्रम सम्वत् १९२० की चैत्र कृष्ण १४ को बना कर पूर्ण की है और विद्वज्जनबोधककी रचना उसके बाद सधी पन्नालालजी दूणीवालोंके द्वारा हुई है, जो प० सदासुखजीके शिष्य थे और जिनका देहान्त वि० सं० १९४० के ज्येष्टमासमें हुआ है। इसलिए हलायुधजीकी -यह भाषाटीका विक्रम संवत् १९२० के कई वर्ष बादकी बनी हुई निश्चित होती है। बल्कि उपर्युक्त श्लोक (न० ४०१) की टीकामें -विद्वज्जनवोधकके सम्बन्धमें दिये हुए, " स्वगृहमें ही गुप्त विद्वज्जनबोधक नाम करि" इत्यादि वाक्योंसे यहाँ तक मालूम होता है कि यह टीका उस वक्त लिखी गई है जिस वक्त कि विद्वज्जनबोधक बनकर तय्यार ही हुआ था और शायद एक दो बार शास्त्रसभामें पढ़ा भी जाचुका था, किन्तु उसकी प्रतियें होकर उसका प्रचार होना प्रारंभ नहीं हुआ था । इसी लिए उसका 'स्वगृहमें ही गुप्त' ऐसा विशेषण
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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