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________________ साहु जुगमन्दरदासजी रईस नजीबाबादकी कृपासे मुझे ग्रंथका दर्शन-- सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिसके लिये मै उनका हृदयसे आभार मानता. हूँ और वे मेरे विशेष धन्यवादके पात्र हैं। इस ग्रंथपर एक हिन्दी भाषाकी टीका भी मिलती है; जिसको किसी 'हलायुध' नामके पंडितने बनाया है। हलायुधजी कब और कहाँपर हो गये है । और उन्होंने किस सन् या सम्वत्में इस भाषाटीकाको बनाया है, इसका कुछ भी पता उक्त टीकासे नहीं लगता। इस विषयमें, हलायुधजीने अपना जो परिचय दिया है उसका एकमात्र परिचायक, ग्रंथके अन्तमें दिया हुआ, यह छन्द है:"चंद्रवाडकुलगोत्र सुजानि । नाम हलायुध लोक वखानि । ताने रचि भाषा यह सार । उमास्वामिको मूल सुसार ॥" इस प्रथके श्लोक नं० ४०१ की टीकामे, 'दुश्श्रुति' नामके अनर्थदंडका वर्णन करते हुए, हलायुधजीने मोक्षमार्गप्रकाश, ज्ञानानंदनिर्भरनिजरसपूरितश्रावकाचार, सुदृष्टितरंगिणी, उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला, रत्नकरंडश्रावकाचारकी पं० सदासुखजीकृत, भाषावनिका और विद्वज्जनवोधकको पूर्वानुसाररहित, निर्मूल और कपोलकल्पित बतलाया है। साथ ही यह भी लिखा है कि "इन शास्त्रोंमें आगम-विरुद्ध कथन किया गया है; ये पूर्वापरविरुद्ध होनेसे अप्रमाण, वाग्जाल हैं; भोले मनुष्योको रजायमान करें हैं; ज्ञानी जनोंके आदरणीय नहीं हैं, इत्यादि ।" पं. सदासुखजीकी भाषावचनिकाके विषयमें खास तौरसे लिखा हैं कि, "रत्नकरड मूल तो प्रमाण है बहुरि देशभाषा अप्रमाण है। कारण पूर्वोपरविरुद्ध, निन्दाबाहुल्य, , आगमविरुद्ध, क्रमविरुद्ध, वृत्तिविरुद्ध, सूत्रविरुद्ध, वार्तिकविरुद्ध कई दोषनिकरि माडित है यातें अप्रमाण, वाग्जाल है।" इन प्रथोंमे क्षेत्र
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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