SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बना डालें । तो भी मालूम होता है कि इस बातको तो कामकाजी लोग भी एकबार ही न उडा दे सकेंगे कि खुला आकाश, खुली हवा और फूलपत्ते मानवसन्तानके शरीर और मनकी परिणतिके लिए बहुत ही आवश्यक हैं । जब उमर बढ़ेगी, ऑफिस जिस समय अपनी ओर खींचेंगे, लोगोंकी भीड़ जब हमें ठेलकर चलेगी, और मन जब नाना प्रयोजनोंसे नाना दिशाओंमें घूमेगा, तब विश्वप्रकृतियोंके साथ हमारे हृदयका प्रत्यक्ष मिलाप होना बन्द हो जायगा। इस लिए इसके पहले हमने जिस जल-स्थल-आकाश-वायु-रूप माताकी गोदमें जन्म लिया है, उसके साथ जब हम अच्छी तरह परिचय कर लें, माताके दूधके समान उसका अमृतरस खींच लें और उसका उदार मन्त्र ग्रहण कर लें, तब ही सच्चे और पूरे मनुष्य बन सकेंगे। बालकोंका हृदय जब नवीन रहता है, उनका कौतूहल जब सजीव होता है और उनकी सारी इन्द्रियोंकी शक्ति जब सतेज रहती है, तब उन्हें खुले हुए आकाशमें जहाँ कि मेघ और धूप खेलती रहती है-खेलने दो। उन्हें इस पृथ्वी माताके आलिइनसे वंचित करके मत रक्खो। सुन्दर और निर्मल प्रातःकालमें सूर्यको उनके प्रत्येक दिनका द्वार अपनी ज्योतिर्मय ग. लियोंके द्वारा खोलने दो और सौम्य गंभीर सन्ध्याको उनका दिवावसान नक्षत्रखचित अन्धकारमें चुपचाप निमिलित होने दो। वृक्ष और लताओंके शाखा पल्लवोंसे सुशोभित नाटकशालामें छह अकोंमें छह ऋतुओंका नानारसविचित्र गीतिनाटकका अभिनय उनके सामने होने दो। वे शाडोंके नीचे खडे होकर देखें कि नव वर्षा यौवराज्यपदपर अभिषिक्त राजपुत्रके समान अपने दलके दल सजल बादल ले कर आनन्द गर्जन करती हुई चिरकालकी प्यासी वनभूमिके ऊपर आसन्न वर्षणकी छाया डाल रही है और शरतकालमें अन्नपूर्णा धरतीकी
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy