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________________ २८५ करनेका दिन कल है । मुझे कल सवेरे चावल देना ही चाहिए। परन्तु क्या करूं चावलका मेरे पास एक दाना भी नहीं-किसी और जगहसे भी मिलनेकी आशा नहीं । क्योकि यहाँ मेरा प्रतिपक्षी एक जबर्दस्त व्यापारी है। उसको किसी तरहसे यह मालूम हो गया है कि मैने राजाके कोठारीके साथ इस तरहका बायदेका व्यापार किया है । इससे उसने यहाँ सारी बस्तीमें जितना चावल था वह सबका सब मुंहमागा दाम देकर खरीद लिया है। कोठारीको उसने कुछ न कुछ घुस(रिश्वत) भी जरूर दी होगी, इस लिए कल मेरी कुशल नहीं मेरी इज्जत नही वच सकती। यदि विधाता ही मेरी सहायता करे और कहींसे एक गाड़ी अच्छे चावल मेरे पास पहुंचा दे, तो शायद मै बच जाऊँ, नहीं तो मेरा मरना हो जायगा । मलिक यह कह ही रहा था कि इतनेमें पाण्डको अपनी मुहरोंकी बसनीकी याद आई । वह घबड़ाकर उठा और उसकी खोज करने लगा। सन्दूकमे, गाड़ीमें, कपड़े लत्तोंमें उसने बहुत ढूंढ खोज की परन्तु वसनीका पता न लगा। उसे सन्देह हुआ कि मेरे नौकर महादत्तने ही बसनी उड़ा ली है। बस फिर क्या था, उसने महादत्तको पुलिसके हवाले कर दिया । यमदूतके समान पुलिसने चोरी स्वीकार करानेके लिए महादत्तको मार मारना शुरू की । असह्य मारके पड़नेसे वह विलबिला उठा और रोता हुआ कहने लगा-मैं निरपराधी हूँ, मैने बसनी नहीं चुराई। मुझे माफ़ करो, मुझसे यह मार नहीं सही जाती। हाय ! हाय! मै मरा, गरीब पर दया करो। मैंने बसनी नहीं ली है; परन्तु मेरे किसी पूर्व पापका उदय हुआ है जिससे मुझपर यह विपत्ति आई है। मैंने अपने सेठके कहनेसे उस वेचारे किसानको रास्तेमें हैरान किया था, अवश्य ही मुझे यह 'उसी पापका फल मिल रहा है। भाई किसान, मैने तुझे बिनाकारण
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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